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प्रमाणवाक्य अशेषधर्मात्मक वस्तु का प्रकाशन करते हैं, जैनमत में यह कथन कसे सम्भव होगा?
३३७ पाँचवें, छठे एवं सातवें भंग का स्पष्टीकरण ।
३४१ अद्वैतवादी सत्सामान्यमात्र को मानते हैं उनका खण्डन ।
३४३ अब आचार्य सामान्य का साक्षात् अर्थक्रिया में उपयोग नहीं है इसका कथन करके परम्परा से भी उपयोग का खण्डन करते हैं।
३४५ विशेषरूप ही एक "असत् अवक्तव्य" को मानने वाले बौद्धों का खण्डन । स्वलक्षण वाच्य नहीं, किन्तु सामान्य तो वाच्य है ऐसा बौद्ध के कहने पर ही आचार्य उत्तर देते हैं।
३४८ बौद्ध अन्यापोह अर्थ का समर्थन करते हैं उस पर विचार ।
३५० अन्वय हेतु व्यतिरेक के साथ अविनाभावी है या नहीं इस पर विचार ।
३६० गगन पुष्पादि प्रमेय हैं या नहीं ? इस पर विचार । सभी शब्द सम्पूर्ण अर्थों को प्रतिपादन कर सकते हैं ऐसा जैनाचार्य कहते हैं ।
३६५ सभी पदार्थ विधि निषेध इन दो धर्मों से सम्बन्धित हैं, इस प्रकार से जैनाचार्य कहते हैं। ३६८ प्रमेयत्व आदि हेतुओं में वैधर्म्य है ही है, इस बात का जैनाचार्य समर्थन करते हैं । ३७१ भेदविवक्षा और अभेदविवक्षा अवस्तु निमित्तक हैं, ऐसा मानने पर जैनाचार्य दोष दिखाते हैं। ३७४ वस्तु में अस्तित्व धर्म भी वास्तविक है किन्तु नास्तित्व धर्म वास्तविक नहीं हैं, ऐसा मानने पर आचार्य दोष दिखाते हैं ।
३७५ हेतु की अन्यथानुपपत्ति के सिद्ध हो जाने पर भी धर्म-धर्मी की व्यवस्था कल्पित ही है, क्योंकि अनुमान भी कल्पित है तब समंजसपना कैसे हो सकेगा? इस प्रकार से बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं।
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बौद्ध का कहना है कि प्रत्यक्ष ज्ञान में स्वलक्षण ही झलकता है अस्तित्वादि नहीं उस पर विचार।
३८० विधि और निषेध का धर्मी कौन है, इत्यादि प्रश्नों पर जैनाचार्य विचार करते हैं। ३८२ धूमादि कृतकत्वादि हेतु अपेक्षाकृत हेतु, अहेतु दोनों ही होते हैं ।
३८४ कौन भंग किस भंग के साथ अविनाभाव रखता है ?
३८८ किसी एक भंग का आश्रय लेकर ही वस्तु अर्थक्रिया को करे, क्या बाधा है? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य समाधान करते हैं।
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