Book Title: Ashtapahuda
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 9
________________ कुंदकुंद-भारती योगी सुख प्राप्त करता है और मलके समूहको नष्ट करता है।।६।। सूत्तत्थपयविणट्ठो, मिच्छाइट्ठी हु सो पुणेयव्यो। खेडेवि ण कायव्वं, पाणिप्पत्तं सचेलस्स।।७।। जो मनुष्य सूत्रके अर्थ और पदसे रहित है उसे मिथ्यादृष्टि मानना चाहिए। इसलिए वस्त्रसहित मुनिको खेलमें भी पाणिपात्र भोजन नहीं करना चाहिए।।७।। हरिहरतुल्लोवि णरो, सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी। तह वि ण पावइ सिद्धिं, संसारत्थो पुणो भणिदो।।८।। जो मनुष्य सूत्रके अर्थसे रहित है वह हरि-हरके तुल्य होनेपर भी स्वर्गको प्राप्त होता है, करोड़ों पर्याय धारण करता है, परंतु मुक्तिको प्राप्त नहीं होता। वह संसारी ही कहा गया है।।८।। उक्किट्ठसीहचरियं, बहुपरियम्मो य गरुयभारो य। जो विहरइ सच्छंदं, पावं गच्छदि होदि मिच्छत्तं ।।९।। जो मनुष्य उत्कृष्ट सिंहके समान निर्भय चर्या करता है, बहुत तपश्चरणादि परिकर्म करता है, बहुत भारी भारसे सहित है और स्वच्छंद -- आगमके प्रतिकूल विहार करता है वह पापको प्राप्त होता है तथा मिथ्यादृष्टि है।।९।। णिच्चेलपाणिपत्तं, उवइटुं परमजिणवरिंदेहिं। एक्को वि मोक्खमग्गो, सेसा य अमग्गया सव्वे।।१०।। परमोत्कृष्ट श्री जिनेंद्र भगवान्ने वस्त्ररहित -- दिगंबर मुद्रा और पाणिपात्रका जो उपदेश दिया है वही एक मोक्षका मार्ग है और अन्य सब अमार्ग है।।१०।। जो संजमेसु सहिओ, आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि। सो होइ वंदणीओ, ससुरासुरमाणुसे लोए।।११।। जो संयमोंसे सहित है तथा आरंभ और परिग्रहसे विरत है वही सुर असुर एवं मनुष्य सहित लोकमें वंदना करनेयोग्य है।।११।। जे बावीसपरीषह, सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता। ते होंति वंदणीया, कम्मक्खयणिज्जरा साहू।।१२।। जो मुनि सैकडों शक्तियोंसे सहित हैं, बाईस परिषह सहन करते हैं और कर्मोंका क्षय तथा निर्जरा करते हैं वे मुनि वंदना करनेके योग्य हैं।।१२।। अवसेसा जे लिंगी, दंसणणाणेण सम्मसंजुत्ता। चेलेण य परिगहिया, ते भणिया इच्छणिज्जा य।।१३।।

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