Book Title: Ashtapahuda
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 15
________________ उदयसे लीन होते हैं।।१७।। सम्मदंसण पस्सदि, जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया। सम्मेण य सद्दहदि य, परिहरदि चारित्तजे दोसे।।१८।। जब यह जीव समीचीन दर्शनके द्वारा सामान्य सत्तात्मक पदार्थोंको देखता है, सम्यग्ज्ञानके द्वारा द्रव्य और पर्यायोंको जानता है तथा सम्यग्दर्शनके द्वारा उनका श्रद्धान करता है तभी चारित्रसंबंधी दोषोंको छोड़ता है।।१८।। एए तिण्णि वि भावा, हवंति जीवस्स मोहरहियस्स। णियगुणमाराहतो, अचिरेण वि कम्म परिहरइ।।१९।। ये तीनों भाव -- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोहरहित जीवके होते हैं। आत्मगुणकी आराधना करनेवाला निर्मोह जीव शीघ्र ही कर्मोका नाश करता है।।१९।। संखिज्जमसंखिज्जगुणं च संसारिमेरूमत्ता णं। सम्मत्तमणुचरंता, करंति दुक्खक्खयं धीरा।।२०।। सम्यक्त्वका आचरण करनेवाले धीर वीर पुरुष संसारी जीवोंकी मर्यादारूप कर्मोंकी संख्यातगुणी तथा असंख्यातगुणी निर्जरा करते हुए दुःखोंका क्षय करते हैं।।२०।। दुविहं संजमचरणं, सायारं तह हवे णिराया। सायारं सग्गंथे, परिग्गहारहिय खलु णिरायारं ।।२१।। सागार और निरागारके भेदसे संयमचरण चारित्र दो प्रकारका होता है। उनमेंसे सागार चारित्र परिग्रहसहित श्रावकके होता है और निरागार चारित्र परिग्रहरहित मुनिके होता है।।२१।। दंसण वय सामाइय, पोसह सचित्त रायभत्ते य। ___ बंभारंभ परिग्गह, अणुमण उद्दिट्ट देसविरदो य।।२२।। दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, अनुमतित्याग, और उद्दिष्टत्याग ये ग्यारह भेद देशविरत -- श्रावकके हैं।।२२।। पंचेवणुव्वयाई, गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि। सिक्खावय चत्तारि य, संजमचरणं च सायारं।।२३।। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत इस तरह बारह प्रकारका सागार संयमचरण चारित्र है।।२३।। थूले तसकायवहे, थूले मोसे अदत्तथूले य। परिहारो परमहिला, परिग्गहारंभपरिमाणं ।।२४।।

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