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अष्टपाहुड
जह फणिराओ सोहइ, फणमणिमाणिक्ककिरणविप्फुरिओ । तह विमलदंसणधरो, जिणभत्ती पवयणे जीवो । । १४५ ।।
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जिस प्रकार नागेंद्र फणाके मणियोंमें स्थित माणिक्यके किरणोंसे देदीप्यमान होता हुआ सुशोभित होता है उसी प्रकार निर्मल सम्यक्त्वका धारक जिनभक्त जीव जिनागममें सुशोभित होता है । । १४५ ।। जह तारागणसहियं, ससहरबिंबं खमंडले विमले ।
भाविय तववयविमलं, जिणलिंगं दंसणविसुद्धं । १४६ ।।
जिस प्रकार निर्मल आकाश मंडलमें ताराओंके समूहसे सहित चंद्रमाका बिंब शोभित होता है। उसी प्रकार तप और व्रतसे विमल तथा सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध जिनलिंग शोभित होता है । । १४६ ।। इय गाउं गुणदोसं, दंसणरयणं धरेह भावेण ।
सारं गुणरयणाणं, सोवाणं पढममोक्खस्स । ।१४७।।
इस प्रकार गुण और दोषको जानकर हे भव्य जीवो! तुम उस सम्यग्दर्शनरूपी रत्नको शुद्ध भावसे धारण करो जो कि गुणरूपी रत्नोंमें श्रेष्ठ है तथा मोक्षकी पहली सीढी है । ।१४७।।
कत्ता भइ अमुत्तो, सरीरमित्तो अणाइणिहणो य । दंसणणाणुवओगो, णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहिं । ।१४८ । ।
यह आत्मा कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तिक है, शरीरप्रमाण है, अनादि-निधन है और दर्शनोपयोग तथा ज्ञानोपयोगरूप है ऐसा जिनेंद्र भगवान्ने कहा है । । १४८ । ।
दंसणणाणावरणं, मोहणियं अंतराइयं कम्मं ।
णिट्ठवइ भवियजीवो, सम्मं जिणभावणाजुत्तो । । १४९।।
भलीभाँति जिनभावनासे युक्त भव्य जीव दर्शनावरण, ज्ञानावरण, मोहनीय और अंतराय कर्मको नष्ट करता है । । १४९ ।।
बलसोक्खणाणदंसण, चत्तारि वि पायडा गुणा होंति ।
ट्टे घाइचउक्के, लोयालोयं पयासेदि । । १५० ।।
घातिचतुष्कके नष्ट होनेपर अनंत बल, अनंत सुख, अनंत ज्ञान और अनंत दर्शन ये चारों गुण प्रकट होते हैं तथा यह जीव लोकालोकको प्रकाशित करने लगता है । । १५० ।।
णाणी सिव परमेट्ठी, सव्वण्हू विण्हू चउमुहो बुद्धो ।
अप्पो विय परमप्पो, कम्मविमुक्को य होइ फुडं । । १५१ । ।
यह आत्मा कर्मसे विमुक्त होनेपर स्पष्ट ही परमात्मा हो जाता है और ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी,