Book Title: Ashtapahuda
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 83
________________ ३४० कुदकुद-भारता णिद्दवअट्ठकम्मा, विसयविरत्ता जिदिंदिया धीरा। तवविणयसीलसहिदा, सिद्धा सिद्धिगदिं पत्ता।।३५ ।। जिन्होंने इंद्रियोंको जीत लिया है, जो विषयोंसे विरक्त हैं, धीर हैं अर्थात् परिषहादिके आनेपर विचलित नहीं होते हैं जो तप विनय और शीलसे सहित हैं ऐसे जीव आठ कर्मोंको समग्ररूपसे दग्ध कर सिद्धि गतिको प्राप्त होते हैं। उनकी सिद्ध संज्ञा है।।३५ ।। लावण्णसीलकुसलो, जम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स। सो सीलो य महप्पा, भमित्थ गुणवित्थरो भविए।।३६।। जिस मुनिका जन्मरूपी वृक्ष लावण्य है और शीलसे कुशल है वह शीलवान् है, महात्मा है तथा उसके गुणोंका विस्तार लोकमें व्याप्त होता है। भावार्थ -- जिस मुनिका जन्म जीवोंको अत्यंत प्रिय है तथा समताभावरूप शीलसे सुशोभित है वही मुनि शीलवान् कहलाता है और उसीके गुण लोकमें विस्तारको प्राप्त होते हैं।।३६ ।। णाणं झाणं जोगो, सणसुद्धी य वीरियावत्तं। सम्मत्तदंसणेण य, लहंति जिणसासणे बोहिं।।३७।। ध्यान, योग और दर्शनकी शुद्धि -- निरतिचार प्रवृत्ति ये सब वीर्यके आधीन हैं और सम्यग्दर्शनके द्वारा जीव जिनशासनसंबंधी बोधि -- रत्नत्रयरूप परिणतिको प्राप्त होते हैं। भावार्थ -- आत्मामें वीर्यगुणका जैसा विकास होता है उसीके अनुरूप ज्ञान, ध्यान, योग और दर्शनकी शुद्धता होती है तथा सम्यग्दर्शनके द्वारा जीव जिनशासनमें बोधि -- रत्नत्रयका जैसा स्वरूप बतलाया है उसरूप परिणतिको प्राप्त होते हैं।।३७ ।। जिणवयणगहिदसारा, विसयविरत्ता तवोधणा धीरा। सीलसलिलेण ण्हावा, ते सिद्धालयसुहं जंति।।३८ ।। जिन्होंने जिनेंद्रदेवके वचनोंसे सार ग्रहण किया है, जो विषयोंसे विरक्त हैं, जो तपको धन मानते हैं, धीर वीर हैं और जिन्होंने शीलरूपी जलसे स्नान किया है वे सिद्धालयके सुखको प्राप्त होते हैं। ।३८ ।। सव्वगुणखीणकम्मा, सुहदुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा। पप्फोडियकम्मरया, हवंति आराहणापयडा।।३९।। जिन्होंने समस्त गुणोंसे कर्मोंको क्षीण कर दिया है, जो सुख और दुःखसे रहित हैं, मनसे विशुद्ध हैं और जिन्होंने कर्मरूपी धूलिको उड़ा दिया है ऐसे आराधनाओंको प्रकट करनेवाले होते हैं।।३९।। अरहंते सुहभत्ती, सम्मत्तं दंसणेण सुविसुद्धं । सीलं विसयविरागो, णाणं पुण केरिसं भणियं ।।४०।।

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