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कुदकुद-भारता निर्विकार है। विषयोंमें प्रवृत्ति भूतचतुष्टयकी होती है इसलिए उनसे हमारा कुछ बिगाड़ नहीं है, क्योंकि उस भूतचतुष्टरूप शरीरके साथ पुरुष -- ब्रह्मको भी अरघटकी घड़ीके समान संसारमें भ्रमण करना पड़ता है।
भावार्थ -- जब तक यह जीव शरीरके साथ एकीभावको प्राप्त हो रहा है तब तक शरीरके साथ इसे भी भ्रमण करना पड़ता है। इसलिए मिथ्यामतके चक्रमें पड़कर अपनी विषयलोलुपताको बढ़ाना श्रेयस्कर नहीं है।।२६।।
आदेहि कम्मगंठी, जावद्धा विसयरायमोहेहिं।
तं छिंदंति कयत्था, तवसंजमसीलयगुणेण।।२७।। विषयसंबंधी राग और मोहके द्वारा आत्मामें जो कर्मोंकी गाँठ बाँधी गयी है उसे कृतकृत्य -- ज्ञानी पुरुष तप संयम और शीलरूप गुणके द्वारा छेदते हैं।।२७।।
उदधी व रदणभरिदो, तवविणयसीलदाणरयणाणं।
सोहे तोय ससीलो, णिव्वाणमणुत्तरं पत्तो।।२८।। जिस प्रकार समुद्र रत्नोंसे भरा होता है तो भी तोय अर्थात् जलसे ही शोभा देता है उसी प्रकार यह जीव भी तप विनय शील दान आदि रत्नोंसे युक्त है तो भी शीलसे सहित होता ही सर्वोत्कृष्ट निर्वाणको प्राप्त होता है।
भावार्थ -- तप विनय आदिसे युक्त होनेपर भी यदि मोह और क्षोभसे रहित समता परिणामरूपी शील प्रकट नहीं होता है तो मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती इसलिए शीलको प्राप्त करना चाहिए।।२८ ।।
सुणहाण गद्दहाण य, गोपसुमहिलाण दीसदे मोक्खो।
जे सोधंति चउत्थं, पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वेहिं ।।२९।। सब लोग देखो, क्या कुत्ते, गधे, गाय आदि पशु तथा स्त्रियोंको मोक्ष देखनेमें आता है? अर्थात् नहीं आता। किंतु चतुर्थ पुरुषार्थ अर्थात् मोक्षका जब साधन करते हैं उन्हींका मोक्ष देखा जाता है।
भावार्थ -- बिना शीलके मोक्ष नहीं होता है। यदि शीलके बिना भी मोक्ष होता तो कुत्ते, गधे, गाय आदि पशु और स्त्रियोंको भी मोक्ष होता, परंतु नहीं होता। यहाँ काकु द्वारा आचार्यने 'दृश्यते' क्रियाका प्रयोग किया है इसलिए उसका निषेधपरक अर्थ होता है। अथवा 'चउत्थं' के स्थानपर 'चउक्कं' पाठ ठीक जान पड़ता है, उसका अर्थ होता है -- क्रोधादि चार कषायोंको शोधते हैं -- दूर करते हैं अर्थात् कषायोंको दूर कर शीलसे वीतराग भावसे सहित होते हैं वे ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं।।२९।।
जइ विसयलोलएहिं, णाणीहि हविज्ज साहिदो मोक्खो।
तो सो सुरत्तपुत्तो, दसपुव्वीओ वि किं गदो णरयं ।।३०।। यदि विषयोंके लोभी ज्ञानी मनुष्य मोक्षको प्राप्त कर सकते होते तो दशपूर्वोका पाठी रुद्र नरक