Book Title: Ashtapahuda
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 12
________________ अष्टपाहुड धारक भी कही जाती हैं।।२५।। चित्तासोहि ण तेसिं, ढिल्लं भावं तहा सहावेण। विज्जदि मासा तेसिं, इत्थीसु ण संकया झाणं ।।२६।। स्त्रियोंका मन शुद्ध नहीं होता, उनका परिणाम स्वभावसे ही शिथिल होता है, उनके प्रत्येक मासमें मासिक धर्म होता है और सदा भीरु प्रकृति होनेसे उनके ध्यान नहीं होता है।।२६।। माहेण अप्पगाहा, समुद्दसलिले सचेलअत्थेण। इच्छा जाहु णियत्ता, ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाई।।२७।। जिसप्रकार कोई मनुष्य अपना वस्त्र धोनेके लिए समुद्रके जलमेंसे थोड़ा जल ग्रहण करता है, उसी प्रकार जो ग्रहण करनेयोग्य आहारादिमेंसे थोड़ा आहारादि ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार जिन मुनियोंकी इच्छा निवृत्त हो गयी है उनके सब दुःख निवृत्त हो गये हैं।।२७ ।। इस प्रकार सूत्रपाहुड समाप्त हुआ। *** चारित्रपाहुड सव्वण्हु सव्वदंसी, णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी। वंदित्तु तिजगवंदा, अरहंता भव्यजीवहिं।।१।। णाणं दंसण सम्मं, चारित्तं सोहिकारणं तेसिं। मुक्खाराहणहेउं, चारित्तं पाहडं वोच्छे।।२।। मैं सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, निर्मोह, वीतराग, परमपदमें स्थित, त्रिजगत्के द्वारा वंदनीय, भव्यजीवोंके द्वारा पूज्य अरहंतोंको वंदना कर सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी शुद्धिका कारण तथा मोक्षप्राप्तिका हेतु रूप चारित्रपाहुड कहूँगा।।१-२।। जं जाणइ तं णाणं, जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं। णाणस्स पिच्छियस्स य, समवण्णा होइ चारित्तं ।।३।। जो जानता है वह ज्ञान है, जो देखता है अर्थात् श्रद्धान करता है वह दर्शन कहा गया है। तथा ज्ञान और दर्शनके संयोगसे चारित्र होता है।।३।।

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