Book Title: Arhat Vachan 2003 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 115
________________ ब्र. अनिलजी, उपअधिष्ठाता ब्र. अभयजी एवं ब्र. बहन रजनीजी का विशेष सहयोग रहा। संशोधित, परिवर्द्धित सूची के अनुसार इसमें 946 ग्रन्थ हैं। प्रकाशित जैन साहित्य का सूचीकरण शोध परियोजना के क्रियान्वयन में भी हमें यह अनुभव आया कि शोधार्थियों को किसी विषय से सम्बद्ध प्रकाशित पुस्तकों की जानकारी प्राप्त करने में बहुत श्रम निरर्थक व्यय करना पड़ता है। देश विदेश के शास्त्र भंडारों के सर्वेक्षण के मध्य प्राप्त किसी अचर्चित पांडुलिपि के प्राप्त होने पर वह पूर्व प्रकाशित है या अद्यतन अप्रकाशित, यह निर्णय करने में बहुत असुविधा होती है। श्री हीरालालजी जैन, भावनगर ने देशव्यापी सम्पर्क के क्रम में कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ से भी पांडुलिपियों के सूचीकरण बाबद सम्पर्क किया एवं 1 जनवरी 99 से 31 मार्च 2002 तक कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर एवं सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर के संयुक्त तत्वावधान में प्रकाशित जैन साहित्य के सूचीकरण की योजना का क्रियान्वयन डॉ. अनुपम जैन के मार्गदर्शन में कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ परिसर में हुआ। 1 अप्रैल 2001 से यह योजना कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ द्वारा स्वतंत्र रूप से संचालित की जा रही है। पांडुलिपि सूचीकरण श्री सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर के आर्थिक अनुदान के आधार पर कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ में जैन पांडुलिपियों के सूचीकरण की योजना श्रुत पंचमी, 18.6.99 को प्रारम्भ की गई जिसके अन्तर्गत अनेक भंडारों में उपलब्ध जैन पांडुलिपियों का सूचीकरण किया गया। व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण हमें इस योजना को 31 मार्च 2001 को बन्द करना पड़ा। भगवान महावीर 2600 वाँ जन्म जयन्ती महोत्सव वर्ष के कार्यक्रमों की श्रृंखला में राष्ट्रीय अभिलेखागार के मार्गदर्शन में मार्च 2003 से जैन पांडुलिपियों की राष्ट्रीय पंजी के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया है। मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र अंचल में यह कार्य संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार की ओर से कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा किया जा रहा है। सिरिभूवलय की डिकोडिंग एवं अनुवाद अंक लिपि में लिखे गये विश्व के अद्वितीय ग्रन्थ 'सिरिभूवलय' की प्रति प्राप्त करने हेतु ज्ञानपीठ के अध्यक्ष श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल 1988 से ही प्रयासरत थे किन्तु राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित इसकी एक मात्र प्रति की छायाप्रति हमें 2001 में प्राप्त हो सकी। अप्रैल 2001 से डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज' के मार्गदर्शन में डिकोडिंग का कार्य चल रहा है। 59 वें अध्याय की डिकोडिंग हो चुकी है। विस्तृत विवरण अर्हत् वचन 14 (23) (2002) में दृष्टव्य है। संगोष्ठियाँ जैन विद्या के क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों को पारस्परिक परिचय सम्पर्क एवं विचार विनिमय का मंच उपलब्ध कराने की दृष्टि से प्रतिवर्ष जैन विद्या संगोष्ठी का आयोजन ज्ञानपीठ द्वारा किया जाता है। अब तक आयोजित संगोष्ठियों की तिथियाँ निम्नवत् हैं, इनकी आख्याएँ सम्मुख अंकित अर्हत् वचन के अंक में दृष्टव्य है ---- अर्हत् वचन, 15 (1-2), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only 113 www.jainelibrary.org

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