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प्रस्तावना
जैन आगम साहित्य का भारतीय साहित्य में विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका अक्षर-कोष जितना विशालकाय है उससे अनेक गुणा अधिक इसमें गंभीर अर्थ, सूक्ष्मता, विशद् व्याख्या समायी हुई है। जैनागम मात्र मानव लोक के जीवन से सम्बन्धित विभिन्न बिन्दुओं पर ही प्रकाश नहीं डालता प्रत्युत शेष तीन गतियों तिर्यलोक, नरकलोक, देवलोक आदि के समग्र जीवन पर भी प्रकाश डालता है। इतना ही नहीं विभिन्न गतियों में परिभ्रमण के कारण, प्रत्येक गति में पाये जाने वाले ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग, लेश्या, संयम, असंयम आदि की भी विस्तृत व्याख्या करता है। इसके साथ ही अपने तप और उत्तम साधना के बल पर अनादिकाल आत्मा पर लगे कर्मों को क्षय कर पंचम मोक्ष गति पाने का भी जैनागम में विधान किया गया।
इसके अलावा जैनागम की श्रेष्ठता होने का प्रमुख कारण इसके उपदेष्टा सर्वज्ञ सर्वदर्शी की वीतरागता है, जो अपनी उत्तम साधना और आराधना के द्वारा पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात् ही वाणी की वागरणा करते हैं। अतएव उनके वचन सर्वदोषों से रहित ही नहीं प्रत्युत परस्पर विरोधी भी नहीं होते हैं। जबकि अन्य दर्शन के उपदेष्टा छद्मस्थ होने के कारण परस्पर विरोधी हो सकते हैं। साथ ही जिस सूक्ष्मता से जीवों के भेद-प्रभेद तथा इनमें पाये जाने ज्ञान-अज्ञान, संज्ञा, लेश्या, योग, उपयोग आदि की व्याख्या एवं अजीव द्रव्यों का भेद प्रभेद आदि का कथन इसमें पाया जाता है, वैसा अन्यत्र नहीं मिल सकता। मिल भी कैसे सकता है? क्योंकि अन्य दर्शनियों के प्रर्वतकों का ज्ञान तो सीमित होता है। जबकि जैन दर्शन के उपदेष्टा सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग प्रभु का ज्ञान तो अनन्त हैं। इस प्रकार जैन आगम साहित्य हर दृष्टि से भूतकाल में श्रेष्ठ था, वर्तमान में श्रेष्ठ है और भविष्यकाल में श्रेष्ठ रहेगा।
— जैन दर्शन में आगम साहित्य का कितना महत्त्व है इसका महज अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि प्रभु ने जो दो प्रकार के धर्म फरमाये हैं उसमें पहला स्थान श्रुतधर्म को दिया है और दूसरा चारित्रधर्म को। आगम ज्ञान श्रुतधर्म के अर्न्तगत आता है। श्रुतधर्म की सुदृढ़ आराधना से ही साधक चारित्र धर्म की सुदृढ़ आराधना कर सकता है। आगम साधक के लिए दर्पण रूप कहा गया है। जिस प्रकार दर्पण के सामने जाते ही जीव को अपना प्रतिबिम्ब नजर
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