Book Title: Anusandhan 2012 03 SrNo 58
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 3
________________ निवेदन संशोधननी प्रक्रियानो सौथी मोटो लाभ ए छे के तेनाथी आपणी मान्यताओनुं संशोधन थाय छे. आपणे कोई बाबते कांई मानता होईए, अने तेने आपणी मान्य परम्परानो टेको पण मळतो ज होय; हवे आपणा संशोधनात्मक अध्ययन दरमियान, आपणी शोधक दृष्टिमां, ते मान्यता करतां कांईक जुएं ज प्रतीत थाय; क्यारेक तो ते पारम्परिक मान्यताथी साव विपरीत पण होय; तेवे वखते सौप्रथम तो आपणे आपणी रूढ मान्यतानुं संशोधन करवू ज रहे. पछी आपणी विवेकशीलता अनुमति आपे तो, ते संशोधनने के संशोधित मान्यताने सर्व समक्ष मूकवानुं साहस करवू जोईए. अलबत्त, एम करवा जतां समाजमां विवाद-विसंवाद न सर्जाय, संशोधक तथा संशोधन परत्वे गेरसमज के अरुचि न जागे, ते जोवू अत्यन्त जरूरी गणाय. आ बधुं संशोधकनी विवेकशीलता उपर ज निर्भर छे. संशोधकनी निष्ठा जेटली शुद्ध अने प्रमाणिक, तेटलो ज तेनामां विवेकनो विकास थशे. आवो विवेक अने आवी निष्ठा न होय तेणे संशोधनना क्षेत्रथी दूर रहेवू ज हितावह छे. संशोधकने सौथी वधु सावधानी 'भिन्न मत'थी राखवानी होय छे. बधा आपणा द्वारा थयेला संशोधनने स्वीकारे नहि. परम्परानो मत तो संशोधित मत प्रत्ये दुश्मननी नजरथी ज जोवानो. आवी क्षणोमां विचलित थर्बु के छीछरा खण्डन-मण्डनमां खेंचाई जर्बु ते विवेकी शोधकने पालवे नहि. आनाथी बचावे तेवू एक ज तत्त्व छ – मतसहिष्णुता. भिन्न के विरोधी एवा, साचा वा खोटा मतथी/मान्यताथी/प्रतिपादनथी शोधकने बचावी शके के रक्षी शके तेवं आ एक ज तत्त्व छे. आपणे आपणा प्रमाणभूत संशोधन द्वारा प्राप्त थयेलो मत विद्वानो समक्ष रजू करी दीधो, एटले आपणुं कार्य सम्पन्न. पछी कोई तेने न स्वीकारे, तेनुं खण्डन करे, तो जो ते खण्डन करनार प्रमाणिक के प्रमाणभूत व्यक्ति होय, तेना द्वारा थता खण्डनमां विवेकनुं प्रमाण जळवातुं होय अने युक्तिओ तथा तर्कोमां पण वजूद लागतुं होय, तो जरूर तेमनी साथे विवाद-संवाद करी शकाय. परन्तु तेवू काई न होय, तो मौन रहेवू वधु हितावह होय छे. सार ए के जे संशोधन, आपणी विचारसरणिने वधु विशद, वधु निर्मळ न बनावे तथा आपणी मान्यताने हठाग्रहमां फेरवाती न अटकावे, तेवा संशोधनकार्यथी अळगा रहेq. शी.

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