Book Title: Anusandhan 1993 00 SrNo 02
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 63
________________ यतिदिनचर्या : वृत्तिनी गवेषणा. - पं. प्रद्युम्रविजयगणी 'यतिदिनचर्या नामनी बे कृति प्रसिद्ध छे. एक श्री देवसूरिकृत अने एक श्री भावदेवसूरिकृत. तेमां श्री भावदेवसूरि कृत 'यतिदिनचर्या -तेना उपरनी श्री मतिसागरसूरिकृत वृत्ति सहित-पूज्यपाद सागरजी महाराजे संपादित करीने प्रकाशित करी छे. अने वीजी श्री देवसरिकृत 'यतिदिनचर्या हजी अप्रकाशित छे. जो के ते मूलमात्र मनि जिनविजय द्वारा संपादित थई प्रकाशित थनार हती पण तेना फर्मा छपाई गया अने पछी प्रस्तावना न लखवाना कारणे ए ए रीते अप्रकाशित ज रही गई. तेना उपर पण श्री मतिसागरसूरिकृत वृत्ति मळे छे. आ मतिसागरसूरिजी कोनी परंपरामां आवे, तेओनो गुरुपूर्वक्रम शं छे, तेओनो सत्तासमय कयो, तेओनी आ बे सिवाय कई कई रचना छे, वगेरे बाबतो जाणी शकाई नथी. अमारे अत्यारे आ श्री देवसूरिकृत ‘यतिदिनचर्या नुं संपादन चाले छे. आना माटेनी सामग्री भंडारोमाथी सारा प्रमाणमां मळी छे. प्राचीनमां प्राचीन एक पोथी छाणीना श्री वीरविजयशास्त्री संग्रहनी ताडपत्रनी मळी छे. लेखनसंवत वि. सं. १३०१ छे. प्रति शुद्ध छे. आमां गाथा ३८९ छे. श्री जिनविजय-संपादित कृतिमा ३३६ गाथा ज मळे छे. तेमने पण घणी घणी प्रतोमा अन्यान्य गाथाओ तो मळी छे पण तेओए एक वाचना स्वीकारीने अन्य प्रतोनी गाथाने पादनोंधमां मूकी छे. अमे तो आ छाणीनी ताडपत्रपोथीने ज आधारे संपादन कर्य छे. बीजी कागळनी सत्तरमा सैकानी घणी प्रतो अलग अलग भंडारोमांथी मळी छे. एक संवेगीना उपाश्रयना भंडारनी पोथी तो "वि.सं. १६४४ वर्षे जगद्गुरु- श्रीहीरविजयसूरिवाचनकृते मुनिमानविजयेन लिखिता- एवी पष्पिकावाळी मळी छे. जो के अमने मळेली. पोथीओमां पण गाथानी संख्या तो ओछी-वधारे मळी ज छे. श्री भावदेवसूरिकृत 'यतिदिनचर्या नी गाथा तो मात्र १५४ ज छे. एटले पू. सागरजी महाराजे तेनो मिताक्षरी प्रस्तावनामा नोंध्यं ज छे के “एक श्री देवसूरिकृत य.दि.च. मळे छे पण ते मोटी छे माटे संक्षिप्तरुचि जीवो माटे आ नानी प्रकाशित करीए छोए." श्री भावदेवसूरि करतां श्री देवसूरिजी प्राचीन छे. देवसूरिकृत य.दि.च. नी आदि-अन्तिम गाथा आ प्रमाणे छे. आदि गाथा - तं जयइ सुहं कम्मं निम्भि असम्म जयम्मि जं सूरो, अविरामं पिच्छं तो अज्जवि न करेइ वीसामं ।।१।। [५८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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