Book Title: Antardvando ke par Author(s): Lakshmichandra Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 5
________________ आशीर्वचन सदा से हमारा यह विश्वास रहा है कि विश्व के धर्मों में एकता के कुछ सबल सूत्र विद्यमान हैं, जिनकी ओर मनीषियों का अपेक्षित ध्यान नहीं गया है । इन सूत्रों के अनुसन्धान से विश्व की बहुरंगी संस्कृतियों और धर्मों की अनेकता में एकता के सोपान पथ का सृजन किया जा सकता है। आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव का व्यक्तित्व एक ऐसी आधारशिला है, जिसके ऊपर विश्व के समस्त धर्मों का एक सर्वमान्य प्रासाद खड़ा किया जा सकता है। प्रायः समस्त धर्मों में आदिदेव ऋषभनाथ का विभिन्न नामों से स्मरण किया गया है । उनके इतिवृत्त के चित्र में भरत - बाहुबली के रंगों से पूर्णता आई है । भरत और बाहुबली दोनों महामानव थे। दोनों के चरित्र स्वतन्त्र हैं, किन्तु दोनों परस्पर पूरक भी हैं। बाहुबली का चरित्र बहुरंगी है और उसका प्रत्येक रंग चटकदार है। उनकी महानता आकाश की ऊँचाइयों को छूती है। उनके जीवन के हर मोड़ पर एक नया कीर्तिमान स्थापित होता चलता है । 1 इस युग के प्रथम कामदेव ( त्रिलोकसुन्दर) थे, अतः गोम्मटेश्वर कहलाते थे । सुन्दर थे, सौम्य थे, साथ ही अप्रतिम बली थे । इसलिए वे बाहुबली कहलाते थे । वे अपने अधिकारों की रक्षा के प्रति सदा सजग रहते थे । अधिकारों की रक्षा करने का साहस और सामर्थ्य भी थी, किन्तु कर्त्तव्यों के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित थे । भरत दिग्विजय कर सार्वभौम सम्राट् का विरुद प्राप्त करना चाहते थे । बाहुबली का स्वतन्त्र अस्तित्व इसमें बाधक बन रहा था । प्रश्न राज्य- लिप्सा का न रहकर शासनतन्त्र की निर्बाध सत्ता का बन गया था। बाहुबली के मन में भरत की अवज्ञा के भाव नहीं थे, किन्तु पिता से प्राप्त राज्य का उपभोग और उसकी सुरक्षा उनका अधिकार था। उस अधिकार की रक्षा करना ही अब उनका कर्त्तव्य बन गया था । दोनों के अपने दृष्टिकोण थे, दोनों को ही अपने पक्ष के औचित्य का आग्रह था । इस आग्रह ने युद्ध के अतिरिक्त सभी मार्ग अवरुद्ध कर दिये । एक सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् के साथ एक नगर के साधारण राजा का युद्ध करने का यह दुस्साहस भले ही रहा हो, किन्तु अपने अधिकारों की रक्षा के लिए, अपनी स्वतन्त्रता कीPage Navigation
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