Book Title: Antakaran Ka Swaroop Author(s): Dada Bhagwan Publisher: Mahavideh Foundation View full book textPage 9
________________ अंत:करण का स्वरूप अंत:करण का स्वरूप प्रश्नकर्ता : Mind with body (मन, शरीर के साथ) वो रिलेटिव है और Mind with soul (मन, आत्मा के साथ) वो रिअल दादाश्री : दोनों बात सच हैं। मन, शरीर के साथ उसको हमने द्रव्यमन कहा है और मन, आत्मा के साथ उसको हमने भावमन कहा। हम भावमन का ओपरेशन करके (आत्मसाक्षात्कार करवा कर) निकाल देते हैं। जो आत्मा के साथ मन है, उसके फादर (पिता) और मदर (माता) का नाम क्या है? ऑपिनियन इझ द फादर एन्ड लेन्गवेज इझ द मधर ऑफ माइन्ड (अभिप्राय, मन का पिता है और भाषा, मन की माता है)। प्रश्नकर्ता : धेन हु इझ द फादर एन्ड मधर ऑफ सॉल (तो फिर आत्मा के माता-पिता कौन है)? दादाश्री : नो फादर, नो मदर, नो बर्थ, नो डेथ ऑफ सॉल। व्हेर धेर इझ डेथ एन्ड बर्थ, धेन धेर इझ फादर एन्ड मधर । (न पिता, न माता, न जन्म, न मृत्यु, जहाँ जन्म और मृत्य है, वहाँ माता और पिता है।) मन को बंद कर देना है तो ओपिनियन (अभिप्राय) मत रखो, तो मन नाश हो जायेगा। प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं, उस तरह से मन खत्म कर दिया तो हमें कौन मार्गदर्शन देगा? मन नहीं होगा, तो मार्गदर्शन कौन देगा? हमें गाइड करने के लिए मन तो चाहिए न? दादाश्री : मन वीथ सॉल (भावमन) खत्म हो गया, फिर मन वीथ बॉडी (द्रव्यमन) रहता है। फिर डिस्चार्ज ही रहता है, नया चार्ज नहीं होता। ये शरीर के साथ जो मन है, वह तो स्थूल है। वह सिर्फ सोचा ही करता है। आम खाया और खट्टा हो तो एक ओर रख दो। मगर 'ये खट्टा है', ऐसा अभिप्राय दिया तो मन का जन्म हो गया। आम अच्छा हो तो खा जाओ, मगर अभिप्राय देने की क्या जरूरत? होटेलवाले ने आपको चाय दी, चाय अच्छी नहीं लगे तो रख दो। पैसे देकर चले जाओ। मगर अभिप्राय देने की क्या जरूरत है? प्रश्नकर्ता : संकल्प और विकल्प यह मन का स्वभाव है? दादाश्री : जहाँ तक भ्रांति हैं, वहाँ तक खुद का स्वभाव है। मन तो उसके धर्म में ही है, निरंतर विचार ही करता है। मगर भ्रांति से मनुष्य बोलता है कि 'मुझे ऐसा विचार आता है।' विचार तो मन की आइटम (चीज़) है, मन का स्वतंत्र धर्म ही है। मगर हम दुसरे का धर्म ले लेते हैं। इससे संकल्प-विकल्प हो जाते हैं। हम निर्विकल्प ही रहते हैं। मन में कोई भी विचार आया तो उसमें हम तन्मयाकार नहीं होते हैं। सारी दुनिया, मन में अच्छा विचार आया तो तन्मयाकार हो जाती है और बुरा विचार आया तो क्या बोलती है? हमें खराब विचार आता है और फिर वह खराब विचार से अलग रहता है। प्रश्नकर्ता : मैं मन के बारे में जो समझा हूँ वो यह है कि मन के दूसरे भी बहुत विभाग हैं, जैसे कि इमेजिनेशन (कल्पना), स्वप्न, संकल्प-विकल्प। दादाश्री : नहीं, वे मन के विभाग नहीं हैं। मन तो क्या है कि जब विचार दशा होती है तब मन है। दूसरी किसी भी दशा में मन नहीं प्रश्नकर्ता : मन में संकल्प-विकल्प आते हैं वे क्या हैं? दादाश्री : वे संकल्प-विकल्प नहीं है, वह मन ही है। मन है, वह विचार करता है। हमारे लोग क्या कहते हैं कि कसंग के बदले सत्संग में आ जाओ। तो सत्संग में आ जाने से क्या होता है कि अभिप्राय बदल जाता है। तो उनकी लाइफ (जिंदगी) अच्छी हो जाती है। मगर जिसे सत्संग नहीं मिला तो वह क्या करेगा? तो मैं उसे दूसरी बात बताता हूँ कि 'भैया, अभिप्राय बदल दो, कुसंग में बैठकर भी अभिप्राय बदल दो।'Page Navigation
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