Book Title: Antakaran Ka Swaroop
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 8
________________ अंत:करण का स्वरूप ६ अंत:करण का स्वरूप एक आदमी से उसकी औरत रोज़ झगड़ती है कि आपके सारे फ्रेन्डसर्कल (दोस्तों) ने बड़े बंगले बना लिये। आप इतने बड़े अफसर (अधिकारी)होकर कुछ नहीं किया। आप क्यों रिश्वत नहीं लेते? आपको रिश्वत लेनी चाहिए। ऐसा उसकी औरत रोज बोलने लगी, फिर उसे भी ऐसा लगा कि 'रिश्वत तो लेनी चाहिए।' फिर वह ओफिस (कार्यालय) में तय करके जाता है, मगर रिश्वत लेने के वक्त पर वो ले नहीं सकता। क्योंकि पिछला ओपिनिअन है, जो इसको लेने नहीं देता। आज ऐसा ओपिनिअन हो गया कि 'रिश्वत लेनी ही चाहिए, रिश्वत लेना अच्छा है।' तो फिर अगले जन्म में वह रिश्वत लेगा। कोई आदमी रिश्वत लेता है, मगर इसका उसे बहुत दुःख होता है कि 'रिश्वत लेनी नहीं चाहिए, यह अच्छा नहीं है, मगर ऐसा क्यों हो जाता है?' तो वह अगले जन्म में रिश्वत नहीं लेगा। यानी आज जो रिश्वत लेता है, वह एडवान्स होता है (उर्ध्वगति में जाता है) और वह जो रिश्वत नहीं लेता, फिर भी अधोगति में जाता है। मन के माता-पिता कौन ? प्रश्नकर्ता : अभिप्राय ही सबका मूल है क्या? दादाश्री : हाँ। अभिप्राय से ही दुनिया खड़ी हो गई है। अभिप्राय से, ये चोर हैं. ये लच्चे हैं. ये बदमाश हैं, ऐसा होता है। यह मन भी अभिप्राय से हुआ है। मन का फादर (पिता) अभिप्राय है । मन के माता-पिता के बारे में किसी ने बोला ही नहीं है। हमें कोई अभिप्राय ही नहीं हैं। कोई आदमी हमारी जेब में से २०० रुपये ले गया, वह हमने देखा। फिर भी दूसरे दिन वह आदमी इधर आये तो हमें ऐसा नहीं लगेगा कि 'यह चोर है'। हम पूर्वग्रह नहीं रखते हैं। उसे 'चोर' कहा तो भगवान पर आरोप आ जाता है, क्योंकि अंदर तो भगवान बैठे हैं। प्रश्नकर्ता : अभिप्राय कैसे पड़ते हैं? दादाश्री : अभिप्राय तो आपकी रोंग बिलीफ (गलत मान्यता) है कि, 'यह आदमी चोर है।' ऐसी बात सुनी कि, 'ये चोर है', तो आपने सच्चा मान लिया और ऐसा अभिप्राय पड़ जाता है। किसी का भी अभिप्राय मत रखो। यह दानेश्वरी है, ये अच्छा आदमी है, उसका भी अभिप्राय मत रखो। प्रश्नकर्ता : मन को कैसे कंट्रोल (नियंत्रित) करें? दादाश्री : मन को कंटोल करने की ज़रूरत ही नहीं है। सब लोग क्या करते हैं? जिसे कंट्रोल नहीं करना है, उसे कंट्रोल करते रहते हैं और जिसे कंट्रोल करना है उसे समझते ही नहीं हैं। उसमें मन बेचारा क्या करे? एक लेखक हमारे पास आया था। हमें कहने लगा कि, 'हमारे मन का ओपरेशन कर दो।' मैंने कहा कि, 'लाओ, अभी करदँ। मगर हमें विटनेस(साक्षी) के हस्ताक्षर चाहिए।' वह कहे कि, साक्षी किस लिए?' मैंने कहा कि, 'मन का ओपरेशन कर दिया, फिर कुछ तकलीफ हो जाये तो हमारे गले पड़ोगे।' तो वह कहने लगा कि 'अरे, इसमें क्या तकलीफ? मन चला गया फिर कितना आनंद, फिर कितनी मौजमजा करेंगे।' मैंने कहा कि, 'नहीं भैया. मैं आपको पहले से बता देता हूँ कि मैंने मन का ओपरेशन कर दिया. फिर तो आप एबसन्ट माइन्डेड (बिना मनवाले) हो जायेंगे। तो आपको चलेगा?' तो बोलने लगे, 'नहीं, हमें एबसन्ट माइन्डेड नहीं होना है।' वह समझ गया। हम क्या कहते हैं कि 'मन को मारने की कोई जरूरत नहीं।' मन को कोई तकलीफ मत दो। मन को कुछ हिलाओ मत। मन को तो कहाँ पर हिलाने की जरूरत है कि जहाँ व्यग्रता है, वहाँ एकाग्रता के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जिसे व्यग्रता नहीं है, उसे कभी एकाग्रता करने की जरूर नहीं है। किसी मजदुर को व्यग्रता नहीं होती है। आत्मा का मरण (नाश) ही नहीं होता है, रिलेटिव का नाश होता है। मन रिअल है कि रिलेटिव है?

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