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दादा भगवान प्ररूपित
अंत:करण का स्वरूप
De
COAN
अंतःकरण का स्वरूप!
'ज्ञानी पुरुष' को world की observatory बोला जाता है। ब्रह्मांड में जो चीज चल रही है, 'ज्ञानी पुरुष' वो सब जानते है। वेद के उपर की बात 'ज्ञानी पुरुष' बता सकते है।
आप कुछ भी पूछो, हमको बुरा नहीं लगेगा। पूरी दुनिया का सायन्टीस्ट जो मांगे वो सब ज्ञान देगें, कि माईन्ड(मन) क्या है, किधर से उसका जन्म है, किधर इसका मरण है। सब मन का, बुद्धि का, चित्त का, अहंकार का, हरेक चीजका सब सायन्स दुनिया को हम देने के लिए आये है।
Sidhu
-दादाश्री
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दादा भगवान प्ररूपित
प्रकाशक : श्री अजीत सी. पटेल
महाविदेह फाउन्डेशन 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९ e-mail: info@dadabhagwan.org
All Rights reserved - Mr. Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
अंतःकरण का स्वरूप
प्रथम संस्करण : ३००० प्रतियाँ,
मार्च, २००८
भाव मूल्य : 'परम विनय' और
'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव! द्रव्य मूल्य : १० रुपये
लेज़र कम्पोज : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद.
मूल संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन
मुद्रक
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिन्टिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नये रिजर्व बैंक के पास, इन्कमटैक्ष, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (०७९) ३०००४८२३, २७५४२९६४
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त्रिमंत्र
दादा भगवान कौन? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भूत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्व दर्शन हुआ । 'मैं कौन हूँ? भगवान कहाँ है ? यह जगत कौन चलाता है ? कर्म क्या? मुक्ति क्या ?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष!
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। इस मार्ग को अक्रम मार्ग कहा गया। अक्रम अर्थात बिना क्रम के, और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट। ___ दादाश्री स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन ?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह दिखाई देनेवाले दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए. एम. पटेल' है। हम ज्ञानीपुरुष हैं और भीतर प्रकट हए हैं. वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं. सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।" ___ 'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपने पैसों से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
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आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लींक
'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न ?'
- दादाश्री
परम पूजनीय दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। दादाश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को भी दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् जारी है। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हजारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।
इस पुस्तिका में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शक के रूप में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान पाना जरूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति आज भी जारी है, इसके लिए प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी को मिलकर आत्मज्ञान की प्राप्ति करे तभी संभव है। प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है।
निवेदन
परम पूज्य दादा भगवान की श्रीमुख वाणी से नीकली ज्ञानवाणी जिसको ओडियो कैसेट में रिकार्ड किया गया था। उस ज्ञानवाणी को ओडियो कैसेट में से ट्रान्स्क्राइब करके बहुत सालों पहले आप्तवाणी ग्रंथ बनाया गया था। उसी ग्रंथ को फिर से संकलित करके निम्नलिखित सात छोटे-छोटे पुस्तक बनाये गये हैं। ताकि पाठक को पढ़ने में सुविधा हो ।
1. ज्ञानी पुरूष की पहचान 2. कर्म का विज्ञान
3. सर्व दुःखों से मुक्ति
4. आत्मबोध
5. जगत कर्ता कौन ?
6. अंत:करण का स्वरूप
7. यथार्थ धर्म
परम पूज्य दादाश्री हिन्दी में बहुत कम बोलते थे। कभी हिन्दी भाषी लोग आ जाते थे, जो गुजराती नहीं समझ पाते थे, उनके लिए दादाश्री हिन्दी बोल लेते थे। उनकी हिन्दी 'प्योर' हिन्दी नहीं है, फिर भी सुननेवाले को उनका अंतर आशय 'एक्जैक्ट' पहुँच जाता है। उनकी वाणी हृदयस्पर्शी, मर्मभेदी होने के कारण, जैसी निकली वैसी ही संकलित करके प्रस्तुत की गई है, ताकि जिज्ञासु वाचक को उनके 'डाइरेक्ट' शब्द पहुँचे। उनकी हिन्दी याने गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी का मिश्रण। फिर भी सुनने में, पढ़ने में बहुत मीठी लगती है, नेचरल लगती है, जीवंत लगती है। जो शब्द है, वह भाषाकीय दृष्टि से सीधेसादे हैं किन्तु 'ज्ञानीपुरुष' का 'दर्शन' निरावरण है, इसलिए उनके प्रत्येक वचन आशयपूर्ण, मार्मिक, मौलिक और सामनेवाले के व्यूपोइन्ट को एक्जैक्ट समझकर निकलने के कारण श्रोता के 'दर्शन' को सुस्पष्ट खोल देते हैं और ज्ञान की अधिक ऊँचाई पर ले जाते हैं।
- डॉ. नीरबहन अमीन
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संपादकीय केवल ज्ञानीपुरुष ही अपने अंत:करण से बिल्कुल अलग रहते है। आत्मा में ही रहकर उसका यथार्थ वर्णन कर सकते हैं। ज्ञानीपुरुष परम पूज्य दादा भगवान (दादाश्री) ने अंत:करण का बहुत ही सुंदर, स्पष्ट वर्णन किया है।
के ऊपर अहंकार और इन सबके ऊपर आत्मा है। बुद्धि, वह मन और चित्त-दोनों में से एक का सुनकर निर्णय करती है और अहंकार अंधा होने से बुद्धि के कहे अनुसार, उस पर अपने हस्ताक्षर कर देता है। उसके हस्ताक्षर होते ही वह कार्य बाह्यकरण में होता है। अहंकार कर्ताभोक्ता होता है वह स्वयं कुछ नहीं करता, वह सिर्फ मानता ही है कि मैंने किया। और वह उसी समय कर्ता हो जाता है। फिर उसे भोक्ता होना ही पड़ता है। संयोग कर्ता है, मैं नहीं, यह ज्ञान होते ही अकर्ता होता है, फिर उसे कर्म चार्ज नहीं होते। अंत:करण की सारी क्रियाएँ मिकानिकल (यांत्रिक) हैं। इसमें आत्मा को कुछ करना नहीं पड़ता। आत्मा तो सिर्फ ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी ही है।
- डॉ. नीरूबहन अमीन
अंत:करण के चार अंग है : मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार। हरेक का कार्य अलग अलग है। एक समय में उनमें से एक ही कार्यान्वित होता है।
मन क्या है? मन ग्रंथियों का बना हुआ है। पिछले जन्म में अज्ञानता से जिसमें राग-द्वेष किये, उनके परमाणु खींचे और उनका संग्रह होकर ग्रंथि हो गई। वह ग्रंथि इस जन्म में फूटती है तो उसे विचार कहा जाता है। विचार डिस्चार्ज मन है। विचार आता है उस समय अहंकार उसमें तन्मयाकार होता है। यदि वह तन्मयाकार नहीं हुआ तो डिस्चार्ज होकर मन खाली हो जाता है। जिसके ज्यादा विचार उसकी मनोग्रंथि बड़ी होती है।
अंत:करण का दूसरा अंग है, चित्त! चित्त का स्वभाव भटकना है। मन कभी नहीं भटकता। चित्त सुख खोजने के लिए भटकता रहता है। किन्तु वे सारे भौतिक सख विनाशी होने की वजह से उसकी खोज का अंत ही नहीं आता। इसलिए वह भटकता ही रहता है। जब आत्मसुख मिलता है तभी उसके भटकने का अंत आता है। चित्त ज्ञानदर्शन का बना हुआ है। अशुद्ध ज्ञान-दर्शन यानी अशुद्ध चित्त, संसारी चित्त और शुद्ध ज्ञान दर्शन यानी शुद्ध चित्त, यानी शुद्ध आत्मा।
बुद्धि, आत्मा की इन्डिरेक्ट लाइट है और प्रज्ञा डिरेक्ट लाइट है। बुद्धि हमेशा संसारी मुनाफा-नुकसान बताती है और प्रज्ञा हमेशा मोक्ष का ही रास्ता बताती है। इन्द्रियों के ऊपर मन, मन के ऊपर बुद्धि, बुद्धि
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अंत:करण का स्वरूप
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ज्ञानीपुरुष, विश्व की आब्जर्वेटरी 'ज्ञानीपुरुष' को तो विश्व की आब्जर्वेटरी (वेधशाला) कहा जाता है। ब्रह्मांड में जो चल रहा है, 'ज्ञानीपुरुष' वह सब जानते हैं। वेद से ऊपर की बात 'ज्ञानीपुरुष' बता सकते हैं।
___ आप कुछ भी पूछिये, हमें बुरा नहीं लगेगा। सारे विश्व के साइन्टिस्ट (वैज्ञानिक) जो मांगे वह सब ज्ञान देंगे, कि मन क्या है, कैसे उसका जन्म होता है, कैसे उसका मरण हो सकता है। मन का, बुद्धि का, चित्त का, अहंकार का, हरेक चीज़ का साइन्स (विज्ञान) दुनिया को हम देने के लिए आये हैं। मन क्या चीज़ है, बुद्धि क्या चीज़ है, चित्त क्या चीज है, अहंकार क्या चीज़ है, सब कुछ जानना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : जिसको मन होता है, उसे ही मनुष्य कहते हैं?
दादाश्री : हाँ, सही है। मगर इन जानवर को भी मन है, मगर उसका मन लिमिटेड (सीमित) है और मनुष्य का अन्लिमिटेड (असीमित) मन है। खुद ही भगवान हो जाये ऐसा मन है, उसके पास।
मनोग्रंथि से मुक्ति कैसे ? प्रश्नकर्ता : मन है, वही बड़ी तकलीफ है।
दादाश्री : नहीं, मन तो बहुत फायदा करानेवाला है। वह मोक्ष में भी ले जाता है।
प्रश्नकर्ता : मन क्या चीज़ है?
दादाश्री : मन अनेक ग्रंथिओं का बना हुआ है।
ग्रीष्म ऋतु में आप खेत में जाते हैं, तो खेत की मेड़ होती है तो वहाँ आप बोलेंगे कि हमारी मेड़ पर कोई नहीं, एकदम साफ है। तो हम बोलेंगे, जून महीने की पंद्रह तारीख जाने दो, फिर आपको बारिश में मालूम हो जाएगा। फिर बारिश हो जाये बाद में आप बोलेंगे कि, इतनी इतनी बेलें निकला हैं। तो हम बोलेंगे कि 'जो बेलें निकली हैं, उनकी ग्रंथियाँ हैं।' अंदर जो ग्रंथियाँ है उन्हें पानी का संजोग मिल गया तो वे सब उग जाती हैं। ऐसा इन्सान के अंदर मन है, वह ग्रंथि स्वरूप है। विषय की ग्रंथि है, लोभ की ग्रंथि है, मांसाहार की ग्रंथि है, हर तरह की ग्रंथि है। मगर उसे समय नहीं मिला, संजोग नहीं मिला, वहाँ तक वह ग्रंथि फूटेगी नहीं। उसका टाइम हो गया. संजोग मिल गया तो ग्रंथि में से विचार आ जाएगा। औरत को देखकर उसका विचार आता है, नहीं देखा तब तक कोई दिक्कत नहीं।
आपको जो विचार आएगा, वह दूसरे को नहीं आएगा, क्योंकि हरेक मनुष्य की ग्रंथि अलग अलग है। कुछ मनुष्यों को मांसाहार की ग्रंथि ही नहीं होती, तो उनको विचार तक नहीं आता है।
एक कॉलिज के तीन विद्यार्थी है, उसमें एक जैन है, एक मुस्लिम है और एक वैष्णव है। वे तीनों समान उम्र के हैं। तीनों में फ्रेन्डशीप (मित्राचारी) है। जो जैन का लड़का है, उसे मांसाहार करने का विचार बिल्कुल ही नहीं आता। वह क्या कहता है, 'ये हमें पसंद नहीं है, हम तो उसे देखना भी नहीं चाहते।' दूसरा, वैष्णव का लड़का है, वह क्या कहता है कि, 'हमें कभी कभी मांसाहार खाने का विचार आता है, मगर हमने कभी नहीं खाया।' तीसरा, मुस्लिम का लड़का कहता है, 'हमें तो मांसाहार का बहुत विचार आता है। हमें तो मांसाहार (nonvegetarian food) बहुत पसंद है। यह हमें हररोज खाना चाहिए।'
इसका क्या कारण है? मुस्लिम को मांसाहार का बहत विचार आता है, वैष्णव को कम विचार आता है और जैन को बिल्कुल विचार
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नहीं आता। जो जैन है, उसके अंदर मांसाहार की ग्रंथि ही नहीं। वैष्णव को इतनी छोटी ग्रंथि है और मुस्लिम की इतनी बड़ी ग्रंथि है। जो ग्रंथि है, वही विचार आएगा, दूसरा विचार नहीं आएगा। विचार तो बहुत प्रकार के हैं, मगर आपके अंदर जितनी ग्रंथि है, उतना ही विचार आएगा। ___ग्रंथि कैसे पैदा होती है? अभी इस जन्म में मांसाहार नहीं खाएगा, मगर आप किसी मुस्लिम लडके की संगत में आ गये और उसने आपको कहा कि 'मांसाहार करने में मज़ा आएगा', तो इससे आपका अभिप्राय हो गया कि 'यह सही है, सच बात है।' फिर आप भी मन में भावना करेंगे कि 'मांसाहार खाने में कोई दिक्कत नहीं।' तो उसकी ग्रंथि हो जाती है और यह ग्रंथि फिर मन में चली जाती है। फिर अगले जन्म में आप मांसाहार खाओगे। आपकी समझ में आता है? इसलिए कभी ऐसा फ्रेन्डसर्कल (मित्रमंडल) नहीं करना। जो मित्र शाकाहारी हों उन्हें ही साथ रखना। क्योंकि ग्रंथि आपने बनाई है। मन को भगवान ने नहीं बनाया है। मन को आपने ही बनाया है।
मन है वह अभी डिस्चार्ज हो रहा है। जो चार्ज हो गया था, वह डिस्चार्ज होता है। वह डिस्चार्ज तो कैसा भी हो जाये। मगर जिस तरह के भाव से चार्ज हुआ है, उसी तरह के भाव से डिस्चार्ज हो रहा है। दूसरा कुछ नहीं है।
'ज्ञानीपुरुष' होते हैं, उन्हें निग्रंथ (बिना ग्रंथिवाले) कहा जाता है। निग्रंथ का अर्थ क्या है? कि हमारा मन एक सेकिन्ड भी अटकता नहीं है। आपका मन कैसा है? पाव-पाव घंटा, आधा-आधा घंटा तक वहीं घूमता रहता है। जैसे मक्खी गुड़ के पीछे फिरती है, ऐसा तुम्हारा मन फिरता है, क्योंकि आप ग्रंथिवाले हैं। हमारा मन ऐसा नहीं है। वो मन कैसा है? जैसे फिल्म चलती है, ऐसा है। उसे फिल्म की माफिक हम देखते हैं कि कैसी फिल्म चलती है!
एक नागर हमारे यहाँ दर्शन करने आता था। वह लोभी आदमी था। उसकी उमर भी ज्यादा हो गई थी। उसे मैंने बोल दिया कि तुम रोज ऑटोरिक्षा में आओ-जाओ। क्यों तकलीफ भुगतकर आते हो? फिर
पैसों का क्या करोगे? लड़का भी कमाता है। वह कहने लगा कि क्या करूँ, मेरा स्वभाव ऐसा लोभी हो गया है। सब लोग खाना खाने बैठे
और मैं सबको लड्डु बाँटने जाता था तो सबको आधा-आधा बाँटता था। हमारे घर का लड्ड नहीं, फिर भी लड्ड तोड़कर आधा-आधा देता था, मेरा स्वभाव ही ऐसा है। तो मैंने उसे बताया कि इस लोभ से तो तुमको बहुत दुःख होगा। वह लोभ की ग्रंथि हो गई है।' उसे तोड़ने का उपाय बताया कि 'पंद्रह-बीस रुपये का चिल्लर (छद्रा पैसा) ले लो और इधर ऑटोरिक्षा से आओ। फिर रस्ते में आते समय थोड़ा थोड़ा पैसा रास्ते पर फेंकते हुए आओ।' उसने एक दिन ऐसा किया। उसे बहुत आनंद हुआ। ऐसे आनंद का रास्ता मैंने बता दिया। पैसा फेंक दिया तो क्या दरिया में चला गया? नहीं, रास्ते में से लोग ले जाएँगे। इधर रास्ते पर पैसा रहता ही नहीं। तुमको इसमें क्या फायदा होता है कि अपना जो मन है, वह मन को समझ में आ जाएगा कि अभी अपना कुछ नहीं चलेगा। फिर लोभ की ग्रंथि टूट जाएगी। ऐसे पैसा पंद्रह-बीस दिन फेंको तो आनंद इतना बढ़ता है और मन फिर हाथ ही नहीं डालेगा। मन समझ जाएगा कि ये तो हमारा कछ मानता ही नहीं। मन खला हो जाता है।
कितने अवतार से आपका मन है? प्रश्नकर्ता : मालूम नहीं। यह मन कैसे पैदा होता है?
दादाश्री : सारी दुनिया मन से घबराती है। मन क्या है उसे समझना चाहिए। मन दूसरी कोई चीज़ नहीं है, पिछले जन्म का ओपिनिअन (अभिप्राय) है। पिछले एक ही जन्म का ओपिनिअन है। आज का आपका ओपिनिअन है, वह आज के ज्ञान से होता है। आपने जो ज्ञान सुना है, जो ज्ञान पढ़ा है, इससे आज का ओपिनिअन है। पिछले जन्म में जो ज्ञान था, उससे जो ओपिनिअन था, वह सब
ओपिनिअन आज का यह मन बोलता है। इससे दोनों में झगड़ा रहा करता है। इस तरह मन से सारी दुनिया परवश हो गई है और दुःखीदु:खी हो गयी है।
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एक आदमी से उसकी औरत रोज़ झगड़ती है कि आपके सारे फ्रेन्डसर्कल (दोस्तों) ने बड़े बंगले बना लिये। आप इतने बड़े अफसर (अधिकारी)होकर कुछ नहीं किया। आप क्यों रिश्वत नहीं लेते? आपको रिश्वत लेनी चाहिए। ऐसा उसकी औरत रोज बोलने लगी, फिर उसे भी ऐसा लगा कि 'रिश्वत तो लेनी चाहिए।' फिर वह ओफिस (कार्यालय) में तय करके जाता है, मगर रिश्वत लेने के वक्त पर वो ले नहीं सकता। क्योंकि पिछला ओपिनिअन है, जो इसको लेने नहीं देता। आज ऐसा ओपिनिअन हो गया कि 'रिश्वत लेनी ही चाहिए, रिश्वत लेना अच्छा है।' तो फिर अगले जन्म में वह रिश्वत लेगा। कोई आदमी रिश्वत लेता है, मगर इसका उसे बहुत दुःख होता है कि 'रिश्वत लेनी नहीं चाहिए, यह अच्छा नहीं है, मगर ऐसा क्यों हो जाता है?' तो वह अगले जन्म में रिश्वत नहीं लेगा। यानी आज जो रिश्वत लेता है, वह एडवान्स होता है (उर्ध्वगति में जाता है) और वह जो रिश्वत नहीं लेता, फिर भी अधोगति में जाता है।
मन के माता-पिता कौन ? प्रश्नकर्ता : अभिप्राय ही सबका मूल है क्या?
दादाश्री : हाँ। अभिप्राय से ही दुनिया खड़ी हो गई है। अभिप्राय से, ये चोर हैं. ये लच्चे हैं. ये बदमाश हैं, ऐसा होता है। यह मन भी अभिप्राय से हुआ है। मन का फादर (पिता) अभिप्राय है । मन के माता-पिता के बारे में किसी ने बोला ही नहीं है।
हमें कोई अभिप्राय ही नहीं हैं। कोई आदमी हमारी जेब में से २०० रुपये ले गया, वह हमने देखा। फिर भी दूसरे दिन वह आदमी इधर आये तो हमें ऐसा नहीं लगेगा कि 'यह चोर है'। हम पूर्वग्रह नहीं रखते हैं। उसे 'चोर' कहा तो भगवान पर आरोप आ जाता है, क्योंकि अंदर तो भगवान बैठे हैं।
प्रश्नकर्ता : अभिप्राय कैसे पड़ते हैं?
दादाश्री : अभिप्राय तो आपकी रोंग बिलीफ (गलत मान्यता) है कि, 'यह आदमी चोर है।' ऐसी बात सुनी कि, 'ये चोर है', तो आपने सच्चा मान लिया और ऐसा अभिप्राय पड़ जाता है। किसी का भी अभिप्राय मत रखो। यह दानेश्वरी है, ये अच्छा आदमी है, उसका भी अभिप्राय मत रखो।
प्रश्नकर्ता : मन को कैसे कंट्रोल (नियंत्रित) करें?
दादाश्री : मन को कंटोल करने की ज़रूरत ही नहीं है। सब लोग क्या करते हैं? जिसे कंट्रोल नहीं करना है, उसे कंट्रोल करते रहते हैं और जिसे कंट्रोल करना है उसे समझते ही नहीं हैं। उसमें मन बेचारा क्या करे?
एक लेखक हमारे पास आया था। हमें कहने लगा कि, 'हमारे मन का ओपरेशन कर दो।' मैंने कहा कि, 'लाओ, अभी करदँ। मगर हमें विटनेस(साक्षी) के हस्ताक्षर चाहिए।' वह कहे कि, साक्षी किस लिए?' मैंने कहा कि, 'मन का ओपरेशन कर दिया, फिर कुछ तकलीफ हो जाये तो हमारे गले पड़ोगे।' तो वह कहने लगा कि 'अरे, इसमें क्या तकलीफ? मन चला गया फिर कितना आनंद, फिर कितनी मौजमजा करेंगे।' मैंने कहा कि, 'नहीं भैया. मैं आपको पहले से बता देता हूँ कि मैंने मन का ओपरेशन कर दिया. फिर तो आप एबसन्ट माइन्डेड (बिना मनवाले) हो जायेंगे। तो आपको चलेगा?' तो बोलने लगे, 'नहीं, हमें एबसन्ट माइन्डेड नहीं होना है।' वह समझ गया। हम क्या कहते हैं कि 'मन को मारने की कोई जरूरत नहीं।' मन को कोई तकलीफ मत दो। मन को कुछ हिलाओ मत। मन को तो कहाँ पर हिलाने की जरूरत है कि जहाँ व्यग्रता है, वहाँ एकाग्रता के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जिसे व्यग्रता नहीं है, उसे कभी एकाग्रता करने की जरूर नहीं है। किसी मजदुर को व्यग्रता नहीं होती है।
आत्मा का मरण (नाश) ही नहीं होता है, रिलेटिव का नाश होता है। मन रिअल है कि रिलेटिव है?
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प्रश्नकर्ता : Mind with body (मन, शरीर के साथ) वो रिलेटिव है और Mind with soul (मन, आत्मा के साथ) वो रिअल
दादाश्री : दोनों बात सच हैं। मन, शरीर के साथ उसको हमने द्रव्यमन कहा है और मन, आत्मा के साथ उसको हमने भावमन कहा। हम भावमन का ओपरेशन करके (आत्मसाक्षात्कार करवा कर) निकाल देते हैं। जो आत्मा के साथ मन है, उसके फादर (पिता) और मदर (माता) का नाम क्या है? ऑपिनियन इझ द फादर एन्ड लेन्गवेज इझ द मधर ऑफ माइन्ड (अभिप्राय, मन का पिता है और भाषा, मन की माता है)।
प्रश्नकर्ता : धेन हु इझ द फादर एन्ड मधर ऑफ सॉल (तो फिर आत्मा के माता-पिता कौन है)?
दादाश्री : नो फादर, नो मदर, नो बर्थ, नो डेथ ऑफ सॉल। व्हेर धेर इझ डेथ एन्ड बर्थ, धेन धेर इझ फादर एन्ड मधर । (न पिता, न माता, न जन्म, न मृत्यु, जहाँ जन्म और मृत्य है, वहाँ माता और पिता है।) मन को बंद कर देना है तो ओपिनियन (अभिप्राय) मत रखो, तो मन नाश हो जायेगा।
प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं, उस तरह से मन खत्म कर दिया तो हमें कौन मार्गदर्शन देगा? मन नहीं होगा, तो मार्गदर्शन कौन देगा? हमें गाइड करने के लिए मन तो चाहिए न?
दादाश्री : मन वीथ सॉल (भावमन) खत्म हो गया, फिर मन वीथ बॉडी (द्रव्यमन) रहता है। फिर डिस्चार्ज ही रहता है, नया चार्ज नहीं होता। ये शरीर के साथ जो मन है, वह तो स्थूल है। वह सिर्फ सोचा ही करता है।
आम खाया और खट्टा हो तो एक ओर रख दो। मगर 'ये खट्टा है', ऐसा अभिप्राय दिया तो मन का जन्म हो गया। आम अच्छा हो तो खा जाओ, मगर अभिप्राय देने की क्या जरूरत? होटेलवाले ने
आपको चाय दी, चाय अच्छी नहीं लगे तो रख दो। पैसे देकर चले जाओ। मगर अभिप्राय देने की क्या जरूरत है?
प्रश्नकर्ता : संकल्प और विकल्प यह मन का स्वभाव है?
दादाश्री : जहाँ तक भ्रांति हैं, वहाँ तक खुद का स्वभाव है। मन तो उसके धर्म में ही है, निरंतर विचार ही करता है। मगर भ्रांति से मनुष्य बोलता है कि 'मुझे ऐसा विचार आता है।' विचार तो मन की आइटम (चीज़) है, मन का स्वतंत्र धर्म ही है। मगर हम दुसरे का धर्म ले लेते हैं। इससे संकल्प-विकल्प हो जाते हैं। हम निर्विकल्प ही रहते हैं। मन में कोई भी विचार आया तो उसमें हम तन्मयाकार नहीं होते हैं। सारी दुनिया, मन में अच्छा विचार आया तो तन्मयाकार हो जाती है और बुरा विचार आया तो क्या बोलती है? हमें खराब विचार आता है और फिर वह खराब विचार से अलग रहता है।
प्रश्नकर्ता : मैं मन के बारे में जो समझा हूँ वो यह है कि मन के दूसरे भी बहुत विभाग हैं, जैसे कि इमेजिनेशन (कल्पना), स्वप्न, संकल्प-विकल्प।
दादाश्री : नहीं, वे मन के विभाग नहीं हैं। मन तो क्या है कि जब विचार दशा होती है तब मन है। दूसरी किसी भी दशा में मन नहीं
प्रश्नकर्ता : मन में संकल्प-विकल्प आते हैं वे क्या हैं?
दादाश्री : वे संकल्प-विकल्प नहीं है, वह मन ही है। मन है, वह विचार करता है।
हमारे लोग क्या कहते हैं कि कसंग के बदले सत्संग में आ जाओ। तो सत्संग में आ जाने से क्या होता है कि अभिप्राय बदल जाता है। तो उनकी लाइफ (जिंदगी) अच्छी हो जाती है। मगर जिसे सत्संग नहीं मिला तो वह क्या करेगा? तो मैं उसे दूसरी बात बताता हूँ कि 'भैया, अभिप्राय बदल दो, कुसंग में बैठकर भी अभिप्राय बदल दो।'
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जब भी विचार करते हैं उस समय मन है। दूसरे समय में मन नहीं होता। जब जलेबी खाने का विचार आया तो फिर वह विचार अहंकार को पसंद आया कि, 'हाँ, बहुत अच्छा विचार है, जलेबी मंगाओ।' इसमें मन कुछ नहीं करता। वह अहंकार है, जो बीज डालता है। क्या करता है?
प्रश्नकर्ता : संकल्प का बीज डालता है।
दादाश्री : हाँ, और विकल्प क्या करता है? कोई पूछे कि यह दुकान तुम्हारी है? तो क्या बोलेगा कि 'हाँ, मैं ही इसका सेठ हूँ।' तो वह विकल्प है। समझ गये न? तो जब योनि में बीज डालता है, तब संकल्प-विकल्प बोला जाता है। मन में संकल्प-विकल्प नहीं है।
प्रश्नकर्ता : तो विचार और अभिप्राय एक ही वस्तु है?
दादाश्री : नहीं, अलग है। अभिप्राय कॉजेज (कारण) है और विचार परिणाम है।
कोई बोले कि 'यह कैसा काला आदमी है ?' तो वह बोलेगा कि 'मैं तो गोरा हूँ।' तो वह विकल्प है। समझ में आता है?
प्रश्नकर्ता : मन में संकल्प-विकल्प नहीं हैं?
दादाश्री : मन में संकल्प-विकल्प नहीं हैं। माइन्ड इझ न्युट्रल, कम्पलिट न्युट्रल (मन निष्पक्ष है, पूर्ण निष्पक्ष है)।
प्रश्नकर्ता : तो अहंकार ही संकल्प-विकल्प करता है? दादाश्री : हाँ, अहंकार ही संकल्प-विकल्प करता है।
सब लोग मन को वश करने की बात करते हैं मगर मन वश होता ही नहीं। अरे, उस बेचारे को क्यों वश करने जाते हो? मैं क्या कहता हूँ कि कंट्रोल दाइसेल्फ! तुम स्वयं को वश करो। मन को वश करना चाहते हो, तो मन किसका लड़का है, उसकी तलाश की है? सब लोग बोलते हैं कि मन, भगवान ने दिया है। मगर भगवान ने ऐसा
मन क्यों दिया है? अरे, भगवान को क्यों गाली देते हैं? भगवान मन कहाँ से लाया? भगवान को मन होता तो भगवान को भी मन परेशान करता। मगर मन परेशान नहीं करता है। मन को क्यों कंट्रोल (नियंत्रित) करते हैं? कंट्रोल दाइसेल्फ (स्वयं को वश करो)! मन का फादर कौन है? Opinion is the father (अभिप्राय, मन का पिता है) और मन की मदर कौन है? Language is the mother ! (भाषा, मन की माता है)! क्रिस्टियन मन के लिए क्रिस्टियन मदर (उनके द्वारा बोली जानेवाली भाषा) और भारतीय मन के लिए भारतीय भाषा चाहिए। मदर्स आर सेपरेट, ऑपिनियन इझ द फादर कॉमन टु आल (भाषा रूपी माता अलग होती है जबकि अभिप्राय रूपी पिता सभी में सामान्य होता है)। क्रिस्टियन भाषा और अभिप्राय वह क्रिस्टियन मन है।
प्रश्नकर्ता : आप ग्राड्युएट (स्नातक) हुए हैं? आपकी तो बहुत हाई लेगवेज (उच्च भाषा) है!
दादाश्री: नहीं भाई, हम तो मैट्रिक फेइल (दशवीं कक्षा अनुर्तीण) हैं।
मन का सोल्युशन (समाधान) इस दुनिया में किसी ने नहीं दिया, तो हम सोल्युशन देते हैं।
मन कैसा है? मन के माता-पिता कौन है ? मन का कहाँ जन्म हुआ? मन के माता-पिता को समझ लिया तो मन चला जाता है। दोनों में से एक मर गया तो मन कैसे रहेगा?
एक पुस्तक लिखी जाये उतनी बात, एक वाक्य में मैं बोलता हूँ कि ऑपिनियन इझ द फादर एन्ड लेगवेज इझ द मधर ऑफ माइन्ड (अभिप्राय मन का पिता है और भाषा उसकी माता है)। मराठी भाषा है तो महाराष्ट्रियन मन है। अंग्रेजी भाषा है तो अंग्रेजी मन है। आपको थोड़ा समझ में आता है?
हमें किसी के बारे में अभिप्राय ही नहीं है। हम दो चीज़ देखते
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हैं, जो रिअल है वह खुद भगवान है और रिलेटिव है, उसे हम निर्दोष देखते हैं। फिर अभिप्राय कैसे रहेगा? अभिप्रायवाले को दोषी ही दिखेगा। सच बात क्या है कि जगत निर्दोष ही है। आँख से देखते हैं वह सब बात सच नहीं है। ये सब भ्रांति है। वास्तव में इस दुनिया में कोई दोषी है ही नहीं। मगर आप दोषी देखते हैं, वो आपको खुद को ही नुकसान करता है। हमें कोई गाली दे तो हमें वह दोषी नहीं दिखता है।
प्रश्नकर्ता : ऐसी दृष्टि खुल जाये, तो फिर दुनिया में कोई बंधन ही नहीं रहता!
दादाश्री : अरे, फिर तो मन भी नहीं रहता।
भाषा हमेशा अभिप्राय के साथ होती है। जब अभिप्राय बोलेगा, तब भाषा बोलनी ही पड़ती है। अभिप्राय बंद हो जाये तो मन खत्म हो जाये, ऐसा आपको समझ में आता है?
एक जैन का लडका है, उसे आप पढेंगे कि तझे मांसाहार का विचार आता है? तो वह बोलेगा कभी आया ही नहीं। और कोई मुसलमान को पूछेगे तो वह बोलेगा, 'हमें हर रोज खाने में वही रहता है।' उस जैन ने पिछले जन्म में मांसाहार का अभिप्राय नहीं रखा, इसलिए उसे मन हुआ नहीं। मुसलमान ने मांसाहार का अभिप्राय रखा तो उसे मन हो गया। इस जन्म में वह अभिप्राय निकाल दे. तो अगले जन्म में मन साफ हो जाता है।
तुम्हारा अभिप्राय है कि इसको मारना ही चाहिए, तो मन अगले जन्म में क्या कहेगा? 'मारो साले को,' ऐसा बोलेगा। जो अभिप्राय था, उसका नया मन हो गया। सब बोलेंगे कि मारो, मारो। फिर आप बोलेंगे कि हमारा मन हमारे वश क्यों नहीं रहता । अरे, कैसे वश होगा? खुदके आधार से तो मन हो गया है। हमारी बात आपकी समझ में आती है?
प्रश्नकर्ता : अभी जो अभिप्राय दिया है, उसका परिणाम अगले जन्म में आएगा, मगर पहले जो अभिप्राय दिया है उसका क्या?
दादाश्री : उसके ही फलस्वरूप यह मन है। यह मन है इससे आपको टेली हो जायेगा (मेल बैठ जायेगा) कि पिछले जन्म में क्या अभिप्राय दिये थे। विचार आया तो लिख लो कि ऐसा अभिप्राय दिया है। फिर वो सब अभिप्राय को तोड़ दो तो यह मन खत्म हो जाता है। हमारा मन खत्म हो गया है।
प्रश्नकर्ता : तो फिर मन किसमें विलीन होगा? क्योंकि मन होगा तो जगत होगा।
दादाश्री : मन ऐसे ही डिजॉल्व (विलीन) हो जाता है, मगर उसे फिर से न बनायें तो। मन तो निरंतर डिस्चार्ज ही हो रहा है, मगर आप फिर से चार्ज भी करते हैं। तो हम क्या करते हैं? चार्ज बंद कर देते हैं। फिर डिस्चार्ज होने दीजिये। अभी तो आपका मन चार्ज भी होता है और डिस्चार्ज भी होता है।
प्रश्नकर्ता : तो जन्म-मरण का चक्कर बंद कैसे होगा?
दादाश्री : मन पूरा डिस्चार्ज हो गया और नया चार्ज नहीं किया तो (जन्म-मरण का) चक्कर बंद हो गया।
चित्त का स्वरूप मन थोड़ा समझ में आ गया न? अब यह चित्त क्या है? वह कैसे बना है?
प्रश्नकर्ता : वह मन का ही विभाग है। एक बात पर ठीक से विचार करता है, चिंतन करता है, वही चित्त है।
दादाश्री : नहीं, नहीं.... चित्त और मन को कुछ लेना-देना नहीं है। आपकी बात उस ओर की है। मगर चित्त कौन-सी चीज़ का कॉम्पोजिशन (संयोजन) है? ज्ञान-दर्शन चित्त का कॉम्पोजिशन है। ज्ञान और दर्शन दोनों अलग हैं। दोनो मिक्सचर (मिलाव) हो जायें, तब उसे चित्त बोला जाता है। ज्ञान और दर्शन में क्या फर्क है? आप आँख से दर्शन को दर्शन मानते हैं? वह दर्शन नहीं है। दर्शन किसे बोलते
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हैं? ज्ञान और दर्शन के बीच क्या अंतर है? कि आप अंधेरे में बगीचे में बैठे हैं, बिल्कुल अंधेरा है और सत्संग की बात कर रहे हैं। अंधेरे में सत्संग की बात करने में कोई दिक्कत होती है? मगर पास में कुछ आवाज आयी तो यह भाई बोलने लगे कि, 'कुछ है।' आपने भी बोला कि 'कुछ है।' हम भी बोले कि 'कुछ है।' 'कुछ है' ऐसा जो ज्ञान हुआ न, उसे 'दर्शन' बोला जाता है। सब फिर विचार करेंगे कि 'क्या है?' जिधर से आवाज आयी थी सब उधर गये, तो वहाँ गाय थी। हम बोलेंगे कि 'यह तो गाय है।' आप भी बोलेंगे कि 'यह गाय है।' तो इसको 'ज्ञान' बोला जाता है। अनडिसाइडेड ज्ञान को 'दर्शन' बोला जाता है और डिसाइडेड ज्ञान को 'ज्ञान' बोला जाता है। पूरा आपकी समझ में आ गया? ज्ञान-दर्शन दोनों इकट्ठे हो जायें, तो चित्त हो जाता है। ज्ञान-दर्शन अशुद्ध हों, तब तक चित्त होता है, और ज्ञान-दर्शन दोनों शुद्ध हों, वह आत्मा है। चित्त अशुद्ध देखता है, 'खुद' को नहीं देखता। "यह मेरी सास है, यह मेरा ससुर है, यह मेरा भाई है,' ऐसा अशुद्ध देखता है, वह अशुद्ध चित्त है। चित्त की शुद्धि हो गई, फिर आत्मज्ञान हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : तो प्रज्ञा किसे कहते हैं?
दादाश्री : चित्त पूर्ण शुद्ध हो गया तो आत्मा हो गया। जब आत्मा प्राप्त हो जाता है, तब प्रज्ञा शुरू हो जाती है ऑटोमेटिकली (अपने आप)! एक अज्ञा है और दूसरी प्रज्ञा है। अज्ञा है तब तक वह संसार में से निकलने नहीं देगी। संसार की यह चीज़ बताती है, वह चीज़ बताती है, मगर संसार से बाहर जाने नहीं देती। बुद्धि है तब तक अज्ञा है। बुद्धि से बात समझ में आती है, मगर वह प्यॉर (शुद्ध) दिखाती नहीं। बुद्धि इन्डिरेक्ट (वक्र) प्रकाश है और ज्ञान डिरेक्ट (सीधा) प्रकाश है। ज्ञान मिल गया तो प्रज्ञा हो गई और प्रज्ञा है वह मोक्ष अनुगामी है। अगर हम ना बोलेंगे तो भी कैसा भी करके वह मोक्ष में ही ले जायेगी।
यहाँ बैठे बैठे तुम्हारा चित्त घर जाता है, मन घर नहीं जाता ।
सब लोग बोलते हैं, हमारा मन घर चला जाता है, इधर चला जाता है। वो सच बात नहीं है। मन तो इस शरीर में से कभी निकलता ही नहीं। वह चित्त बाहर चला जाता है। कोई लड़का पढ़ रहा है, मगर उसे लोग क्या बोलते हैं कि तुम्हारा चित्त इधर पढ़ने में नहीं है, तुम्हारा चित्त क्रिकेट में है। मन ऐसा नहीं देख सकता। मन तो अंधा है। सिनेमा देखकर आया, फिर भी चित्त उसे देख सकता है। यह चित्त ही बाहर भटक भटक करता है और ढूँढता है कि किसमें सुख है। सबको दो चीजें परेशान करती हैं, मन और चित्त।
मन इस शरीर में से बाहर निकल ही नहीं सकता। मन इस शरीर में से बाहर निकले तो सब लोग फिर घुसने नहीं दें। मगर वह बाहर निकलता ही नहीं। मन तो विचार की भूमिका है। वह, विचार के सिवाय कुछ भी काम नहीं करता। सिर्फ विचार ही करता है। सब जगह भटकता है, बाहर फिरता है, वह चित्त है। चित्त यहाँ से घर जाकर टेबल, कुर्सी, अलमारी सब देखता है। घर में, लड़का, लड़की, औरत को भी देखता है, वह चित्त है। बाजार में अच्छा देखा तो खरीद लेने का विचार किया, तो वहाँ भी चित्त चला जाता है। सब देख सकता है, वह चित्त है। मगर अभी अशुद्ध चित्त है। वह शुद्ध हो जाये तो सब काम पूरा हो जाता है, सच्चिदानंद हो जाता है।
सच्चिदानंद तो सभी बात का एक्सट्राक्ट (सार) है। जो आत्मा है, वह सच्चिदानंद है। भगवान है, वही सच्चिदानंद है। सच्चिदानंद में सत् है। जगत में कोई आदमी पाँच इन्द्रिय से देखता है, वह सत् नहीं है। सत् किसे बोला जाता है कि जो पर्मनेन्ट (शाश्वत) है। ऑल धिस रिलेटिव आर टेम्पररी एडजस्टमेन्टस (ये सारी रिलेटिव बातें अस्थायी एडजस्टमेन्ट है)। जो टेम्पररी है, उसे सत् नहीं कहा जाता। चित्त यानी ज्ञान-दर्शन। सत्-चित्त यानी सच्चा ज्ञान और सच्चा दर्शन। जो टेम्पररी को देखता है, वह अशुद्ध ज्ञान-दर्शन है, यानी अशुद्ध चित्त है। यह तो चित्त की अशुद्धि हो गई है। चित्त की शुद्धि हो जाये तो काम हो गया। चित्त की शुद्धि हो जाये तो उसे सत्-चित बोला जाता है। सत्चित से आनंद ही मिलता है।
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प्रश्नकर्ता : तो आनंद की व्याख्या क्या होगी?
दादाश्री : जगत का जो सत्य है वह सत् नहीं है। व्यवहार में चलता है, वह सत्य लौकिक है। वास्तविकता अलौकिक चीज़ है। लौकिक में वास्तविकता नहीं है। वास्तविकता, सत् है, वह सत्य नहीं है। सत् किसे कहा जाता है कि जो चीज़ निरंतर होती है, नित्य होती है, उसे सत कहा जाता है। अनित्य को सत्य बोला जाता है। जगत का सत्य, असत्य सापेक्ष है। आपको जो सत्य लगता है, दूसरों को वह असत्य लगता है और जो सत् है वह कभी बदलता ही नहीं। सत् यानी पर्मनेन्ट! चित् यानी ज्ञान-दर्शन। ज्ञान-दर्शन एक करे, तो चित्त बोला जाता है। पर्मनेन्ट ज्ञान-दर्शन हो गया तो उसका फल क्या? आनंद ! पर्मनेन्ट ज्ञान-दर्शन को क्या बोलते हैं? केवल (एब्सोल्यूट) ज्ञान-दर्शन!
बुद्धि का विज्ञान दादाश्री : आपको बुद्धि है? प्रश्नकर्ता : एकदम थोड़ी।
दादाश्री : बुद्धि ज्यादा नहीं है तो आप काम कैसे करते हैं? बिना बद्धि के तो कोई काम ही नहीं कर सकता। बुद्धि, यह संसार चलाने के लिए प्रकाश है। संसार में वह डिसिजन (निर्णय) लेने के लिए है। बुद्धि है तो डिसिज़न ले सकते हैं। आप कैसे डिसिजन लेते हैं?
प्रश्नकर्ता : जितनी थोड़ी बुद्धि से काम होता है, उससे चला लेता हूँ।
दादाश्री : आपके वहाँ ज़्यादा बुद्धिवाला कोई है?
प्रश्नकर्ता : दुनिया में बहुत हो सकते हैं । वे कौन हैं, वह मुझे मालूम नहीं है।
दादाश्री : जिसे बिल्कुल बुद्धि नहीं है, ऐसा कोई देखा है?
प्रश्नकर्ता : बिल्कुल बुद्धि न हो ऐसा तो कोई नहीं देखा है। क्योंकि जितने भी प्राणी है, उन्हें भी उनके ग्रेड (कक्षा) अनुसार थोड़ी भी तो बुद्धि रहती ही है।
दादाश्री : हमारे में बुद्धि बिल्कुल नहीं है। हम अबुध हैं।
प्रश्नकर्ता : हाँ, यह सच बात है, ऐसे हो सकता है जब अबुध की लिमिट (सीमा) तक पहुँच गया, तो वह आदमी स्वयं बुद्ध हो जाता है।
दादाश्री: हाँ, स्वयंबुद्ध हो जाता है। अबुध हो जाये फिर ज्ञान प्रकाश हो जाता है। जहाँ तक बुद्धि है वहाँ तक एक परसेन्ट (प्रतिशत) भी ज्ञान होता ही नहीं। ज्ञान है वहाँ बुद्धि नहीं है। हमें जब ज्ञान हो गया, फिर बुद्धि बिल्कुल खत्म हो गई।
तुमको बहुत बुद्धि है तो तुम्हारी पत्नी के हाथ में से पैसा रस्ते में गिर जाये, तुम पीछे चलते हो और पैसा गिरते देखा तो तुम इमोशनल (भावमय) हो जाओगे। यह बुद्धि इमोशनल कराती है। जब तक अहंकार है तब तक बुद्धि है। हमें बुद्धि नहीं है, ऐसा सिर्फ बोलने से चलता है?
प्रश्नकर्ता : ज्यादा बुद्धि नहीं, थोड़ी बुद्धि है।
दादाश्री : थोड़ी बुद्धि (लगती है) वही ज्यादा बुद्धि है। इस काल में सम्यक् बुद्धि कम है और विपरीत बुद्धि ज्यादा है। सारे जगत के छोटे बच्चे को भी बुद्धि है। किसी का पैसा रस्ते में गिरा हो तो ले लेता है, वह क्या बुद्धि नहीं है? वह सब विपरीत बुद्धि है। सम्यक् बुद्धि तो, हमारे पास बैठने से हो सकती है।
एक आदमी हमें पूछता था कि, 'जगत में दूसरों के पास ज्ञान नहीं है? आपके पास ही है?' तो हमने कहा कि, 'नहीं, जिसके भी पास ज्ञान है, वह सब्जेक्ट (विषय) ज्ञान है, वह बुद्धि का ज्ञान है।
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अंत:करण का स्वरूप
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बुद्धि के कनेक्शनवाले संसार के सभी सब्जेक्ट जाने मगर वह अहंकारी ज्ञान है, इसलिए उसका बुद्धि में समावेश होता है। मगर निरहंकारी ज्ञान, वही ज्ञान है।' 'मैं कौन हूँ' इतना ही जो जाने, वह 'ज्ञानी' है। जप, तप, त्याग सब सब्जेक्ट (विषय) हैं। विषयी कभी निर्विषयी आत्मा प्राप्त नहीं कर सकता।
प्रश्नकर्ता : जो सिद्धि प्राप्त करता है वह भी विषय है?
दादाश्री : वह सभी विषय हैं और वह सब सब्जेक्ट ज्ञान हैं और विषय की आराधना करने से मोक्ष नहीं मिलता। आपके पास बुद्धि है, जगत के पास बुद्धि है, मगर हम अबुध है। बुद्धि, मनुष्य को क्या करती है? इमोशनल करती है। ये ट्रेन मोशन (गति) में चलती है, वह अगर इमोशनल हो जाये तो क्या हो जाएगा?
प्रश्नकर्ता : सब बिगड़ जाएगा।
दादाश्री : वैसे मनुष्य इमोशनल होता है, तब शरीर के अंदर जितने जीव हैं, वे सब मर जाते हैं। उसका दोष लगता है। इसलिए हम तो मोशन में ही रहते हैं। हम इमोशनल कभी नहीं होते। आपको मोशन में रहने की इच्छा है या इमोशनल?
प्रश्नकर्ता : मोशन में रहने की इच्छा है।
दादाश्री : मनुष्य की बुद्धि क्या बताती है? नफा और नुकसान, दो बताती है। बुद्धि दूसरी कोई चीज़ नहीं बताती। गाड़ी में अंदर दाखिल होते ही, बुद्धि दिखाती है कि 'किधर अच्छी जगह है और किधर नहीं है।' बुद्धि का धंधा ही नफा-नुकसान दिखाने का है। मुझे बिल्कुल बुद्धि नहीं है, तो मुझे नफा-नुकसान किसी जगह पर लगता ही नहीं। यह अच्छा है, यह बुरा है, ऐसा लगता ही नहीं। बड़े-बड़े बंगलेवाले लोग आते हैं, वे हमें पूछते हैं कि 'आपकी दृष्टि से हमारा बंगला कैसा लगा?' तो हम बताते हैं, 'मुझे तुम्हारा बंगला कभी अच्छा नहीं लगा जो बंगला इधर ही छोड़ना है, उसका अच्छा बुरा क्या देखना? इसी बंगले में से अपनी ननामी (अर्थी) निकलेगी।'
बुद्धि पर-प्रकाशक है और आत्मा स्व-पर प्रकाशक है। बुद्धि और ज्ञान दो अलग बातें हैं। आपके पास ज्ञान है या बुद्धि?
प्रश्नकर्ता : बुद्धि तो है, ज्ञान के लिए वहाँ तक पहुँचा नहीं। दादाश्री : बुद्धि है तो वहाँ ज्ञान नहीं है। प्रश्नकर्ता : इसलिए ज्ञान में पहुँचने के लिए कोशिश करता हूँ।
दादाश्री : नहीं, ज्ञान में कोशिश करने की जरूरत ही नहीं। वह सहज होता है, कोशिश नहीं करनी पड़ती।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान की बात बुद्धि से नहीं समझनी है, ऐसा क्यों?
दादाश्री : हाँ, यह बात बुद्धि से पर है। बुद्धि जिसके पास बिल्कुल है नहीं, जो अबुध है, वहाँ से यह बात मिलती है। इस दुनिया में किसी जगह पर अबुध आदमी कभी देखा था? सब बुद्धिवाले देखे? इस दुनिया में हम अकेले अबुध हैं। हमारे में बुद्धि बिल्कुल नहीं, हमारे पास ज्ञान है। ज्ञान और बुद्धि में क्या डिफरन्स (फर्क) है? बुद्धि इन्डिरेक्ट प्रकाश है और ज्ञान डिरेक्ट प्रकाश है। ये दो चीजें हैं, तो दो में से हमने एक रख लिया, डिरेक्ट प्रकाश। इन्डिरेक्ट प्रकाश हमें नहीं चाहिए। जिसके पास डिरेक्ट प्रकाश नहीं है, उसे इन्डिरेक्ट प्रकाश चाहिए। इसके लिए वह कैन्डल (मोमबत्ती) रखता है मगर डिरेक्ट प्रकाश आया तो फिर कैन्डल की क्या जरूरत? (आत्मा प्राप्त होने के बाद बुद्धि की क्या जरूरत?) सारे जगत के पास कैन्डल है, हमारे पास केन्डल नहीं है अर्थात् हमारे पास बुद्धि नहीं है।
जो इन्डिरेक्ट प्रकाश है वह कैसा प्रकाश होता है? यह आपको बता दूं कि सूर्यनारायण का प्रकाश इधर आयने पर डिरेक्ट आता है
और आयने का प्रकाश अपनी रसोई में जाता है। रसोई में जाता है, उस प्रकाश को इन्डिरेक्ट प्रकाश बोला जाता है। ऐसे सब मनुष्यों को 'बुद्धि' इन्डिरेक्ट प्रकाश है, और सूर्यनारायण का डिरेक्ट प्रकाश जो इधर आयने पर आता है, उस डिरेक्ट प्रकाश को 'ज्ञान' बोला जाता है।
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अंत:करण का स्वरूप
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सूर्यनारायण का प्रकाश आयने के माध्यम द्वारा जाता है। वहाँ मिडियम (माध्यम) आयना का है। वैसे आत्मा का प्रकाश अहंकार के माध्यम द्वारा निकलता है, वह बुद्धि है। जैसा अहंकार होता है, वैसी ही बुद्धि होती है।
प्रश्नकर्ता : अपने आपको 'मैं' कहते हैं, वह 'मैं' को अहंकार कहते हैं ना?
दादाश्री: हाँ, वह 'मैं' का अहंकार है वहाँ बद्धि है और 'मैं' का अहंकार नहीं वहाँ ज्ञान है, प्रकाश है। हमारे में बुद्धि नहीं है और 'मैं' का अहंकार भी नहीं है। हमारे में किसी प्रकार का अहंकार नहीं है। बड़े बड़े महात्माओं को 'मैं, मैं, मैं' ही रहता है।
प्रश्नकर्ता : तो फिर वह बड़ा कैसे हुआ? जब 'मैं, मैं, मैं' है तो फिर वह बड़ा नहीं है न?
दादाश्री : वह तो उसकी समझ में ऐसा है कि 'मैं बड़ा हूँ'। अहंकार बीच में माध्यम है। जो प्रकाश है, उसके बीच में अहंकार का माध्यम है, साथ में बुद्धि होती है। हमारे पास बुद्धि नहीं है, क्योंकि अहंकार खत्म हो गया, फिर बुद्धि कहाँ से लायें? हम में कुछ भी अहंकार होता तो फिर हमें ज्ञान ही नहीं होता, प्रकाश नहीं होता। जहाँ अहंकार है वहाँ बुद्धि है और अहंकार नहीं वहाँ आत्मा का प्रकाश है।
बुद्धि हरेक आदमी को सरिखी नहीं होती। किसी के पास ८० डिग्री, किसी के पास ८१ डिग्री, किसी के पास ८२ डिग्री, ऐसी डिग्रीवाली है। 100% (शत प्रतिशत) बुद्धि किसी को नहीं है। जब 100% बुद्धि होती है तब उसे 'बुद्ध भगवान' बोला जाता है। उनकी बुद्धि 100% हो गई थी, मगर वह प्रकाश में नहीं आये थे। उनका अहंकार क्या था? दया, दया, दया... ये दु:खी, ये दु:खी, सब दुःखी को देखकर दया आती थी। उन्हें क्या हुआ था ? वह उनका अहंकार था और इसलिए वे आगे ज्ञान में नहीं गये। वह अहंकार अच्छा अहंकार था, मगर अहंकार खड़ा है, तब तक आगे कैसे आयेगा? बाकी, बुद्ध
तो भगवान हो गये। अगर एक स्टेप (कदम) आगे गये होते, तो पूर्ण भगवान हो जाते। महावीर भगवान हुए न, ऐसे पूर्ण भगवान हो जाते।
बुद्धि है वहाँ मोक्ष कभी नहीं है, और कभी मिलेगा भी नहीं। चौबीस तीर्थंकरों को बुद्धि बिल्कुल नहीं थी।
प्रश्नकर्ता : लेकिन उन्हें तो अनंतज्ञान है, ऐसे कहते है न?
दादाश्री : वह अनंतज्ञान तो बिल्कुल ठीक है मगर उनके बुद्धि नहीं थी। बुद्धि तो सब लोगों को होती है। गरीब लोगों को भी बुद्धि तो रहती है।
प्रश्नकर्ता : तो बुद्धि और ज्ञान में क्या फर्क है?
दादाश्री : बहुत फर्क है। जैसे अंधेरा और उजाला है, इतना फर्क है। संसार में जो भटकता है, वह बद्धि से ही भटकता है। बद्धि से तो भगवान नहीं मिलते और बुद्धि मोक्ष में जाने ही नहीं देती । बुद्धि मोक्ष में नहीं जाने देने के लिए प्रोटेक्शन (रक्षण) करती है। नफानुकसान, प्रोफिट-लॉस बुद्धि ही बताती है। क्या करती है?
प्रश्नकर्ता : व्यवहार में घुमाती है ?
दादाश्री : हाँ, व्यवहार में ही घुमाती है। वह बाहर निकलने ही नहीं देती, और कभी मोक्ष में नहीं जाने देगी। बुद्धि खत्म हो जायेगी, फिर मोक्ष हो जायेगा। हम अबुध हैं। हमें बुद्धि नहीं है। छोटे बच्चे
को भी बुद्धि होती है। सभी मनुष्यों को बुद्धि है। दुनिया में हम अकेले बिना बुद्धि आदमी हैं। इस दुनिया में साइन्टिस्ट (वैज्ञानिक) सब प्रकार का ज्ञान जानता है, मगर वह बुद्धि में चला जाता है। क्योंकि वह ज्ञान अहंकार सहित है और अहंकार के माध्यम से वह ज्ञान होता है। आत्मा का ज्ञान है, प्रकाश है, उस डिरेक्ट ज्ञान को ज्ञान बोला जाता है। जहाँ अहंकार नहीं है, वहाँ डिरेक्ट ज्ञान है। सारी दुनिया के तमाम सब्जेक्ट जाने, मगर जो अहंकारी ज्ञान है वह बुद्धि है और जो निर्अहंकारी ज्ञान है वह ज्ञान है।
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ये जगत क्या है? वह संक्षिप्त में बता देता हूँ। एक शुद्धात्मा है और दूसरा संयोग है, सिर्फ दो ही वस्तुएँ हैं।
संयोग के बहुत विभाजन होते हैं। स्थूल संयोग, सूक्ष्म संयोग और वाणी के संयोग। तुम एकांत में बैठे हो और मन ने कुछ बताया, तो वह तुम्हारा सूक्ष्म संयोग है। कोई आदमी तुम्हें बुलाने आया वह स्थूल संयोग है। तुमने कुछ बोल दिया वह वाणी का संयोग है। जो संयोग है वह वियोगी स्वभाववाला है। जो संयोग मिलता है तुम्हें उसे कहना नहीं पड़ता कि तुम चले जाओ या तुम रहो। रहो बोलोगे तो भी वो चला जायेगा। संयोग का स्वभाव ही वियोगी है। शुद्धात्मा को कुछ नहीं करना पड़ता। उसका समय हो जायेगा तो वह उठकर चला जायेगा। संयोग को बुद्धि ने दो प्रकार से बता दिया कि, 'यह मेरे लिए अच्छा है और यह मेरे लिए बुरा है।' वे सभी संयोग हैं। मगर बुद्धि ने अच्छा-बुरा नाम दे दिया। इसमें 'ज्ञानी' अबुध रहते हैं। संयोग को संयोग ही मान लेते हैं। वे संयोग के दो भाग नहीं करते। द्वन्द्व नहीं करते कि 'बुरा है और अच्छा है।' जो अबुध हो गया उसे संयोग कुछ नुकसान नहीं करता और बुद्धिवाला हो गया कि 'अच्छा, बुरा', ऐसा किया तो फिर तकलीफ होती है।
100% बुद्धिशाली हो तो भी, ये जगत किसने बनाया यह नहीं समझ सकता। आज के साइन्टिस्ट लोग समझ गये हैं कि क्रिएशन (सर्जन) में खुदा की जरूरत नहीं है।
'अहम्कार' का सोल्युशन वो बग (खटमल) मारने की दवाई होती है, उसे मनुष्य पी जाता है, फिर उसे मारने में भगवान की जरूरत पड़ती है?
प्रश्नकर्ता : मगर दवाई पीने की बुद्धि कौन देता है? दादाश्री : अंदर जो बुद्धिवाला है वह देता है। प्रश्नकर्ता : वह आत्मा है?
दादाश्री : नहीं, आत्मा इसमें हाथ ही नहीं डालता। आत्मा निर्लेप है, असंग ही है। ये सब अहंकार की क्रिया है।
प्रश्नकर्ता : तो यह खटमल मारने की दवाई एक आदमी ने ली तो उसका पूर्व का कुछ संबंध है?
दादाश्री : हाँ, पूर्व का ही संबंध है। वह अपना ही कर्म है, दूसरा कुछ नहीं। भगवान तो इसमें हाथ ही नहीं डालते। कर्म से उसकी बुद्धि ऐसी हो गई और बग मारने की दवाई पी जाता है। आत्मा तो असंग ही है।
लोग बोलते हैं कि आत्मा की इच्छा से हो गया। मगर आत्मा को इच्छा ही नहीं होती है, आत्मा को इच्छा ही नहीं है। आत्मा को इच्छा है तो वह भिखारी है। आत्मा को इच्छा हो गई तो सब खत्म हो गया। ये सब अहंकार का है, बीच में अहम् ही है। जब अहंकार चला जाये तब फिर सारे पज़ल सोल्व हो जाते हैं (पहेलियाँ सुलझ जाती हैं)। पज़ल सोल्व करने का आपका विचार है? मगर पज़ल होगा तो ही प्रोगेस (प्रगति) होगा। पज़ल होना चाहिए, प्रोब्लेम (समस्या) तो होनी चाहिए। प्रोगेस के लिए प्रोब्लेम होना चाहिए। मन की कसौटी, बुद्धि की कसौटी, अहंकार की कसौटी होनी चाहिए।
'हमने ऐसा बोल दिया', ऐसे वह स्पीच (वाणी) का मालिक हो जाता है। सब लोग भ्रांति से बोलते हैं कि 'मैंने ऐसा किया ! ऐसा किया.' वह सब भ्रांति है, सच्ची बात नहीं है। इससे अहंकार होता है। अहंकार से ही जन्म-जन्मान्तर होते हैं।
वह जब लास्ट स्टेशन (मृत्यु) जाने का समय होता है, तब दोचार दिन बाकी रह गये हों तो क्या होता है? वह क्या बोलेगा? 'मैं नहीं बोल सकता' बोलना बंद हो जाता हैं। और आप बोलते हैं कि, 'मैं बोलता हूँ'। अरे, क्या बोलते हो? सारे जगत में कोई आदमी ऐसा जन्मा नहीं है कि जिसे संडास जाने की अपनी खुद की शक्ति हो। वह जब बंद हो जाएगा, तब मालूम हो कि हमारी शक्ति नहीं थी।
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सारा दिन क्या बोलता है कि 'ये सारा हमने बोला, हम ऐसे बोलते है, हमने ऐसा बोल दिया।' फिर जाने के समय बोलनेवाला किधर चला गया? तो कहेगा, 'बोलने की शक्ति नहीं है, सब बंद हो गया।'
यह तो मात्र अहंकार करता है कि, 'हमने यह किया, हमने वह किया।' हम में अहंकार बिल्कुल नहीं है। इस देह के मालिक हम कभी नहीं हुए। इस वाणी के, इस मन के भी मालिक हुए नहीं और आप तो सबके मालिक, 'ये हमारा, ये हमारा'। कोई आदमी लास्ट स्टेशन (मृत्यु) के बाद कुछ साथ नहीं ले जाता। तुम्हारा हो तो साथ में ले जाओ न ? मगर नहीं ले जाता। उसकी इच्छा तो है साथ में ले जाये। मगर कैसे ले जाये? रेन्टल रूम (यह शरीर) भी खाली करने की इच्छा नहीं, मगर क्या करें? मार-मार के खाली करवाता है।
आप खुद ही भगवान हैं, मगर आपको मालूम नहीं हैं। हम तो उसे देखते हैं, मगर आपको भगवान का अनुभव नहीं हैं। आप आत्मा हैं इसका आपको अनुभव नहीं हैं। सेल्फरीअलाइझेशन (आत्मसाक्षात्कार) भी नहीं किया और जो आपका सेल्फ (स्वरूप-आत्मा) नहीं है, उसे ही मानते हैं कि 'मैं ही सेल्फ हूँ।'
प्रश्नकर्ता : सब लोग बोलते हैं कि 'अहम्' को भूलो और 'अहम्' को भूलने के लिए हम तैयार हैं, मगर वह भूलाया नहीं जाता तो उसे कैसे भूलाया जाये?
दादाश्री : कोई भी आदमी 'अहम्' को भूल सकता ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन यह अहम् छोड़ा कैसे जाये? इसके लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : जो 'ज्ञानीपुरुष' है, उनके विज्ञान से सब होता है। वहाँ ज्ञान नहीं चलेगा। यह सब ज्ञान है वह रिलेटिव ज्ञान है। उसमें करना पड़ता है। मगर यह रिअल ज्ञान है, उसे विज्ञान बोला जाता है। विज्ञान आने पर फिर तुमको कुछ करने का नहीं, ऐसे ही हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : कई लोग कहते हैं कि हमें ज्ञान हुआ है, वह क्या है?
दादाश्री : नहीं, वह ज्ञान नहीं है। जिसे ज्ञान मानते हैं, वह मिकानिकल (बुद्धिजन्य) ज्ञान है। सच्चा ज्ञान तो और ही चीज़ है। उस ज्ञान का तो वर्णन ही नहीं होता। ज्ञान का एक परसेन्ट भी आज किसी ने देखा नहीं। वह सब तो मिकानिकल चेतन की बात है, भौतिक की बात है। और भौतिक का सूक्ष्म विभाग है। जो भक्ति विभाग है
और वहाँ 'मैं' और 'भगवान' अलग ही रहते हैं। जगत के लिए वह ज्ञान ठीक है। असल ज्ञान किसे बोला जाता है, जो संपूर्ण ज्ञान है। जिसके आगे कुछ जानने की जरूरत ही नहीं, जिसे 'कैवल्य ज्ञान' बोला जाता है, जिसमें कोई क्रिया ही नहीं है। जगत में जो ज्ञान है, वह क्रियावाला ज्ञान है।
___ यह देह तो इस जीवन के लिए ऐसे ही चलती है। इसमें आत्मा की कोई क्रिया न हो तो कोई दिक्कत नहीं है। इसमें आत्मा की हाजिरी की जरूरत है। 'हम' 'इनके साथ हैं, तो सब क्रिया हो जाती है। वह सब क्रिया मिकानिकल है। जगत जिसे आत्मा मानता है, वो मिकानिकल आत्मा है, सच्चा आत्मा नहीं है। सच्चा आत्मा 'ज्ञानी' ने देखा है और 'ज्ञानी' उसी में रहते हैं। सच्चा आत्मा वो 'खुद' ही है। उन्हें 'जो' पहचानता है, वही खुदा है। सच्चा आत्मा अचल है और मिकानिकल आत्मा चंचल है। सब लोग मिकानिकल आत्मा की तलाश करते हैं। वो मिकानिकल आत्मा भी अभी नहीं मिला. तो अचल की बात कहाँ से मिलेगी? वह तो 'ज्ञानीपुरुष' का ही काम है। कभी किसी समय ही 'ज्ञानीपरुष' होते हैं। हजारों साल में कोई एकाध 'ज्ञानीपुरुष' होता है। तब उनके पास से आत्मा खुला हमें समझ में आ जाता है।
हरेक पुस्तक में लिखा है, हरेक धर्म लिखता है कि आत्मज्ञान जानो, वही आखिरी बात है। हिन्दुस्तान में अभी भी संत महात्मा हैं। वे सब आत्मा की तलाश करते हैं। मगर कोई आदमी ऐसा नहीं है जिसे आत्मा मिला हो। (आमतौर पर) आत्मा मिल सके ऐसी चीज़ नहीं
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है! जो 'मिला है' बोलता है वह भ्रांति से बोलता है। उसे खबर ही नहीं कि आत्मा क्या चीज़ है। आत्मा तो खुद ही परमात्मा है। वह यदि मिल गया तो खुद ही परमात्मा हो गया। जहाँ तक 'हे भगवान! यह करो, वह करो' बोलता है, वहाँ तक 'मैं खुद भगवान हूँ, मैं खुद परमात्मा हूँ' ऐसा बोलने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता। जब तक 'मैं-तू, मैं-तू' रहता है, तब तक तो उसने कुछ भी नहीं कमाया।
प्रश्नकर्ता : उसके लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : नहीं, उसके लिए कुछ नहीं करना चाहिए। ऐसा कोई आदमी ही नहीं है, जो कुछ भी कर सके। क्योंकि यु आर टोप, तुम लट्र हो। तुम्हारी कोई शक्ति ही नहीं है। तमको प्रकृति चलाती है। क्योंकि 'तुम कौन हो' वह तुमको मालूम नहीं है। तुम्हारी सत्ता क्या चीज़ है? तुम क्या करनेवाले हो? जो प्रकृति को जानता है, प्रकृति के आधार से चलता है और खुद को भी जानता है, खुद के आधार से चलता है, दोनों अलग हैं। जो स्व-पर प्रकाशक हो गया है, वह सब कुछ कर सकता है। सारी दुनिया के लोगों को हम टोप्स (लटट) बोलते हैं। अगर सच जानना है, तो ओल आर टोप्स (सब लटू हैं)! प्रकृति नचाती है, ऐसा तुम नाचते हो, फिर बोलते हो, 'मैं नाचता हूँ।' ज्ञानीपुरुष को तो अंदर 'स्व' और 'पर' दोनों अलग ही रहते हैं और उसमें लाइन ओफ डिमार्केशन (भेदरेखा) होती है। 'पर' प्रकृति का विभाग है, अनात्म विभाग है और 'स्व', खुद का विभाग है, आत्म विभाग है। उनको होम डिपार्टमेन्ट (आत्म विभाग)और फोरिन डिपार्टमेन्ट (अनात्म विभाग) दोनों अलग ही रहते हैं। ज़रूरत पड़े तो फोरिन (अनात्म) में आते हैं, प्रकाशक रूप में। मगर क्रिया नहीं करते कभी। आत्मा क्रिया कर सकता ही नहीं। वह, दर्शनक्रिया और ज्ञानक्रिया ही करता है। मात्र ये दो क्रियाएँ करता है। यह जो हमें दिखती हैं, ऐसी क्रिया करने की उसकी शक्ति ही नहीं है। इनको ऐसा करने की इच्छा हो तब वह कल्पना मात्र से कर सकता है। किसी अंग की कोई जरूरत नहीं है। कल्पना की तो अंगवाला हो जाता है। यह कल्पना से ही जगत
खड़ा हो गया है। फिर उसे सब चीज़ आकर मिलती है। बाद में उसे यह सब पसंद नहीं आता, इसलिए वह मोक्ष की मांग करता है कि, 'हे भगवान ! हमें यह सब नहीं चाहिए। हमें मोक्ष ही चाहिए।' जो भगवान है, उसकी एक कल्पना से सारा जगत खड़ा हो जाता है ! इतनी कल्पना की शक्ति है! भगवान में कल्पना की शक्ति है मगर दूसरी अपने जैसी शक्ति नहीं है, अहंकार नहीं है।
किस लिए अहंकार करना? बड़े आदमी को अहंकार करने की क्या ज़रूरत है? छोटा आदमी ही अहंकार करता है। जो बड़ा है उससे कोई बड़ा नहीं, उसको अहंकार की ज़रूरत क्या है? मैं खुद ही जानता हूँ कि मुझसे ब्रह्मांड में कोई बड़ा नहीं है, तो मुझे अहंकार की जरूरत क्या है? मैं तो बालक की तरह रहता हूँ। हमें कोई गाली दे तो हम आशीर्वाद देते हैं। हम जानते हैं कि उस बिचारे को समझ नहीं है और दृष्टि नहीं है। उसे हम निर्दोष देखते हैं । जगत में हमें कोई दोषी नहीं दिखता। हमें सबका आत्मा दिखता है और प्रकृति दिखती है। पहले पुरुष हो जाओ, फिर पुरुष देखो। फिर कोई दोषी दिखेगा ही नहीं। भगवान महावीर कैवल्य ज्ञान में थे, उनको सभी एक समान निर्दोष लगते थे। उनकी दृष्टि में चोर चोरी करता है, वह भी सही था और दानवीर दान देता है, वो भी सही था।
अहंकार का जजमेन्ट (फैसला) दादाश्री : तुममें कोई भूल है या नहीं? प्रश्नकर्ता : हाँ, है न । दादाश्री : कितनी? दो-चार होगी?
प्रश्नकर्ता : विचार करें कि हमारी कहाँ कहाँ गलती हुई है, तो काफी गलतियाँ निकलेगी, क्योंकि आत्मा का 'जजमेन्ट' गलत नहीं होगा।
दादाश्री : यह आत्मा का 'जजमेन्ट' नहीं है । यह अहंकार का
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'जजमेन्ट' है । मगर वह भी सुंदर 'जजमेन्ट' करता है। अहंकार भी शुद्ध वस्तु है। उसे जितना शुद्ध रखना हो उतना रख सकते हैं। मगर अहंकार का मूल गुण नहीं जाता। अहंकार की जो इन्टरेस्टेड (रुचिकारक) वस्तु है, उसे वह दबा देता है । वह फिर वहाँ न्याय नहीं करता। अहंकार को खुद को जिसमें इन्टरेस्ट (रुचि) होता है, उन सब वस्तुओं की भूल नहीं देखता। वहाँ तो सब भूल दबा देता है।
प्रश्नकर्ता : अहंकार छोड़ने का मार्ग क्या है?
दादाश्री : हम ही छुड़वाते हैं । आप क्या छोड़ेंगे? आप तो खुद ही अहंकार से बंधे हैं ।
इस अहंकार की कितनी लेन्थ (लंबाई) है, कितनी हाइट (ऊंचाई) है और कितनी ब्रेड्थ (चौड़ाई) है, यह आप जानते हैं? यह अहंकार सारे जगत में वाइड स्प्रेड (विस्तृत रूप से फैला हुआ) होता है ! अहंकार का लेन्थ, ब्रेड्थ, हाइट सब बड़ा है, तो अब अहंकार कैसे निकालेंगे? जैसा भगवान का विराट स्वरूप है ऐसा अहंकार का स्वरूप है । आपको अहंकार निकालना है? तो हम निकाल देंगे। हमारे पास आ जाना।
अहंकार चला जायेगा तो फिर अहंकार के लड़के है न, क्रोधमान-माया-लोभ, वे सब अपना बिस्तरा बाँधकर चले जायेंगे । फिर देह में जो थोड़ा रहता है, वह निर्जीव अहंकार रहता है, निर्जीव क्रोधमान-माया-लोभ रहते हैं, सजीव नहीं रहता। फिर क्रोध आपको नहीं होगा, शरीर को होगा। मगर निर्जीव हो जायेगा। निर्जीव यानी ड्रामेटिक, नाटक की माफिक रहता है। जैसे नाटक में बोलते हैं न, 'हम राजा है' मगर अंदर जानता है कि, 'मैं ब्राह्मण हूँ और अभी इधर नाटक में राजा हूँ।'
निअहंकारी का संसार कौन चलाएगा? हमारा अहंकार बिल्कुल खत्म हो गया है। साइन्टिस्ट लोग पूछते हैं कि 'आपका अहंकार खत्म हो गया तो फिर आप काम कैसे कर
सकते हैं?' हमने बताया, 'वो हमारा निर्जीव अहंकार है।' जैसे यह लटू (Top) होता है न? उसे ऐसे फेंकते हैं, फिर वह घूमता है। वह कैसे घूमता है? वह निर्जीव है, ऐसे हमारा अहंकार भी निर्जीव अहंकार है। आपको सजीव अहंकार भी है और निर्जीव अहंकार भी है। निर्जीव अहंकार से कर्मफल मिलता है और सजीव अहंकार से अगले जन्म के लिए कर्मबंध होता है।
सजीव अहंकार से अगले जन्म की मन-वचन-काया की नई बैटरी चार्ज हो जाती है और निर्जीव अहंकार से मन-वचन-काया की पुरानी बैटरी डिस्चार्ज होती है। ऐसे आपको चार्ज और डिस्चार्ज दोनों हो रहे हैं। हम आपका चार्ज बंद कर देंगे, फिर डिस्चार्ज अकेला रहेगा। सिर्फ संसार चलाने के लिए जो अहंकार चाहिए, उतना डिस्चार्ज रूप अहंकार रहता है। वह चार्ज रूप अहंकार नहीं होता है।
आत्मा मिल जाये फिर, गाली दे, कुछ भी करे, तो उसे स्पर्श होता ही नहीं। आत्मा मिल जाने के बाद अहंकार चला जाता है। आत्मा मिलने के बाद जो अहंकार है, वह संसार का काम करे ऐसा रहेगा, निर्जीव अहंकार, फिर सजीव अहंकार नहीं रहेगा।
अहंकार की मुक्ति करनी है। अहंकार की मुक्ति हुई कि (संपूर्ण) मुक्ति हो गई।
ज्ञानियों की भाषा में जीता-मरता कौन है? प्रश्नकर्ता : आत्मा अमर है, इसका अर्थ क्या है?
दादाश्री : अमर यानी सनातन है। जो चीज़ रिअल है, वह सनातन है। सनातन ही अमर है। सनातन यानी शाश्वत, पर्मनेन्ट! आत्मा है, वह पर्मनेन्ट है। आप इन पाँच इन्द्रियों से अनुभव करते हैं, वे सब रिलेटिव है। वे अवस्थाएँ है और अवस्था टेम्पररी एडजस्टमेन्ट है, विनाशी है।
प्रश्नकर्ता : यह मरता कौन है?
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दादाश्री : खुद मरता ही नहीं। जो अहंकार है, वह मरनेवाला है। क्योंकि वह 'मैं हूँ, मैं हूँ' बोलता है। जिसे अहंकार नहीं है वह खुद ही है, वह खुद हो गया है और खुद कभी मरता ही नहीं। अहंकार है उसे मरने का फीअर (भय) है। अहंकार से ही क्षण में ऍलिवेट (उन्नत) होता है और क्षण में डिप्रेस (उदास) होता है। अहंकार चला गया, फिर कभी डिप्रेस नहीं होता।
भगवान कहते हैं कि 'दुनिया में कोई नहीं मरता।' और सब लोग रोते है। क्यों? लोग बोलते हैं कि 'हमें तो ऐसा नहीं दिखता है।' तो मैंने कहा कि "हमारी आँख से देखो, 'ज्ञानीपुरुष' की दृष्टि से देखो।" हमने देख लिया कि इस दुनिया में कोई मरता ही नहीं है। तो लोग रोते है कि 'हमारा भाई मर गया, हमारा भतीजा मर गया।' अरे, खाली परेशान क्यों होते हो? सिर्फ अवस्था का विनाश होता है, मूल वस्तु सनातन है। तुम सनातन हो तो तुमको कुछ नहीं होता और तम अवस्था रूप हो गये तो तुम्हारा विनाश होता है।
बात को समझने की जरूरत है। मैं वैज्ञानिक बात कहता हूँ, वैज्ञानिक यानी जो 'है वह है ही' और 'नहीं है, वह नहीं है' ऐसा बोलता हूँ। जो 'नहीं है' उसे हम 'है' नहीं बोलेंगे। आप बोलें कि 'ऐसा कुछ तो होगा'। तो भी हम बोलेंगें कि 'वह नहीं है'। फिर आपको कितना भी बुरा लगे तो भी हम नहीं है', उसे 'है' नहीं बोलेंगे। क्योंकि हमारी जिम्मेदारी है। हम जो बात बोलते हैं, हम बाईस साल से जो भी बोलते हैं, उसमें से एक बात आप पूछे कि हमें आप यह बोले हैं तो इसका खुलासा दो, तो हम खुलासा दे सकते हैं। हम हरेक चीज़ का खुलासा देने को तैयार हैं। यह जगत स्वयं पज़ल हो गया है! हमने खुद देखा है कि कैसे पज़ल हो गया है।
प्रश्नकर्ता : अंग्रेजी में सोल (soul) कहते हैं, वही आत्मा है?
दादाश्री : वे लोग सोल (soul) बोलते हैं, मगर समझते नहीं है कि सोल (आत्मा) क्या चीज़ है। आत्मा अलग वस्तु है। आत्मा
तो प्रकाश है। मगर उसे आत्मा ऐसा सिर्फ नाम दिया है। आत्मा चीज़ है। चार वेद पढ़ें तो भी उनमें आत्मा नहीं है। सब लोग आत्मा की तलाश करते हैं। मगर आत्मा स्थूल चीज़ नहीं है। वह सक्ष्म चीज़ नहीं है। वह सूक्ष्मतर चीज़ भी नहीं है। आत्मा तो सूक्ष्मतम चीज़ है। पुस्तक तो स्थूल है, शब्द भी स्थूल है। पुस्तक में तो स्थूल बात ही है। सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम बात तो इसमें है ही नहीं। तो किधर आत्मा को तलाश करने का? गो टु 'ज्ञानी', 'ज्ञानीपुरुष' के पास जाओ, वहाँ सब कुछ मिलेगा।
अहंकार, ध्यान में नहीं किन्तु क्रिया में प्रश्नकर्ता : मुझसे ध्यान ठीक से नहीं होता। ध्यान कैसे करना चाहिए? मुझे सीखना है।
दादाश्री : ध्यान आप करते हो या दूसरा कोई करता है? प्रश्नकर्ता : मैं करता हूँ। दादाश्री : कभी आपसे ध्यान नहीं भी होता ऐसा होता है? प्रश्नकर्ता : हाँ, ऐसा होता है।
दादाश्री : उसका कारण है। जब तक 'आप चंदूभाई है' तब तक कोई भी कार्य सही तरीके से नहीं होगा। आप चंदूभाई है वह बात कितने प्रतिशत सही होगी?
प्रश्नकर्ता : शत प्रतिशत।
दादाश्री : जब तक 'मैं चंदूभाई हूँ' रोंग बिलीफ है तब तक 'मैंने ये किया, मैंने वो किया', ऐसा अहंकार है। जो भी कार्य करो, उसमें कर्तापन का अहंकार होगा और कर्तापन का अहंकार बढ़ेगा उतने भगवान दूर चले जायेंगे। अगर आपको परमात्मापद प्राप्त करना है तो ज्ञानी के पास ज्ञान लेने से आपका अहंकार खत्म होगा तब आपका काम होगा।
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ध्यान किसी को भी करना नहीं आता। जो ध्यान करने में आता है वह अहंकार से है। इसलिए उसे सही ध्यान नहीं कहा जाता। उसे एकाग्रता कहते है। जहाँ अहंकार नहीं है वहाँ ध्यान है। ध्यान अहंकार से नहीं हो सकता। ध्यान तो समझने जैसी चीज़ है, वह करने की चीज़ नहीं है। ध्यान और एकाग्रता में बहुत अंतर है। एकाग्रता के लिए अहंकार की जरूरत है। ध्यान तो अहंकार से निर्लेप है। अहंकार बढ़े या कम हो तो वह आपके ख्याल में रहता है या नहीं?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : अहंकार बढ़े या कम हो वह ख्याल में रखे उसका नाम ध्यान कहा जाता। आर्तध्यान और रौद्रध्यान में भी अहंकार नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : धर्मध्यान में अहंकार रहता है या नहीं?
दादाश्री : उसमें भी अहंकार नहीं है। ध्यान में अहंकार नहीं होता है, क्रिया में अहंकार होता है।
प्रश्नकर्ता : रौद्रध्यान और आर्तध्यान में अहंकार निमित्त तो बनता है न?
दादाश्री : निमित्त अकेला ही नहीं, किन्तु क्रिया भी अहंकार की है। क्रिया वह ध्यान नहीं है। किन्तु क्रिया में से जो परिणाम उत्पन्न होता है वह ध्यान है। और जो ध्यान उत्पन्न होता है उसमें अहंकार नहीं है। आर्तध्यान हो गया, उसमें 'में आर्तध्यान करता हूँ' ऐसा यदि न हो तो उस ध्यान में अहंकार नहीं होता। अहंकार का दूसरी जगह पर 'उपयोग' होता है तब ध्यान उत्पन्न होता है।
प्रश्नकर्ता : ध्यान में अहंकार नहीं है, कर्ता नहीं है, तो फिर कर्म किस तरह से बंधा जाता है?
दादाश्री : आर्तध्यान होने के बाद मैंने आर्तध्यान किया' ऐसा मानता है वहाँ कर्ता होता है, और उसी का बन्धन होता है।
प्रश्नकर्ता : आपने कहा था कि ध्येय तय करने के बाद खुद ध्याता होता है, तब ध्यान उत्पन्न होता है। उसमें अहंकार की जरूरत नहीं है?
दादाश्री : उसमें अहंकार हो या ना भी हो। निरअहंकार ध्याता हो तो शुक्लध्यान उत्पन्न होता हो। नहीं तो धर्मध्यान या आर्तध्यान या रौद्रध्यान उत्पन्न होता है।
प्रश्नकर्ता : यानी ध्यातापद अहंकारी हो या निरअहंकारी हो, लेकिन उसके परिणाम स्वरूप जो ध्यान उत्पन्न होता है उसमें अहंकार नहीं है?
दादाश्री : हाँ ! और शुक्लध्यान परिणाम में जब आयेगा तब मोक्ष होगा।
प्रश्नकर्ता : ध्येय तय होता है उसमें अहंकार का हिस्सा होता है क्या?
दादाश्री : ध्येय अहंकार ही निश्चित करता है। मोक्ष का ध्येय और ध्याता निअहंकारी होता है तब शुक्लध्यान होता है।
प्रश्नकर्ता : धर्मध्यान के ध्येय में अहंकार की सूक्ष्म उपस्थिति होती है क्या?
दादाश्री : हाँ, होती है। अहंकार की उपस्थिति के बिना धर्मध्यान हो ही नहीं सकता।
प्रश्नकर्ता : आर्तध्यान, रौद्रध्यान और धर्मध्यान उसे पुद्गल परिणति कह सकते है क्या?
दादाश्री : हाँ, उसे पुद्गल परिणति कही जाती है और शुक्लध्यान वह स्वाभाविक परिणति है।
प्रश्नकर्ता : यानी शुक्लध्यान वह आत्मा का परिणाम है न?
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दादाश्री : हाँ।
प्रश्नकर्ता : शुक्लध्यान हो तो उसमें से जो कर्म होंगे वे अच्छे होंगे। और धर्मध्यान में हो तो उससे थोडे कम अच्छे कर्म होंगे, वह सही है?
दादाश्री : शुक्लध्यान हो तो क्रमिक मार्ग में कर्म होते ही नहीं। अक्रम मार्ग में है इसलिए होते है। लेकिन इसमें खुद कर्ता होकर नहीं होता, निकाली भाव से होता है। यह तो कर्म खत्म किये बगैर 'ज्ञान' प्राप्त हो गया है न!
राग-द्वेष खत्म करने के लिए ध्यान नहीं करना है, सिर्फ वीतराग विज्ञान को जानना है।
अहंकार का विलय कैसे? आपको टेम्पररी रिलीफ (अस्थायी राहत) चाहिए या पर्मनेन्ट रिलीफ (स्थायी राहत) चाहिए?
प्रश्नकर्ता : पर्मनेन्ट।
दादाश्री : तो 'मैं चंदूभाई हूँ' वह कब तक चलेगा? उसका विश्वास कितना टाइम चलेगा? नाम का क्या भरोसा? देह का क्या भरोसा? हम खुद कौन हैं, उसकी तलाश तो करनी चाहिए न? वह जान लिया तो फिर धंधा तो अभी चलता है, उससे भी अच्छा चलेगा। अभी तो धंधे में खराबी होती है, वह खराबी कौन करता है? बुद्धि धंधा अच्छा करती है और अहंकार उसे तोड़ता है। मगर अहंकार हमेशा नुकसान नहीं करता।
प्रश्नकर्ता : हर घड़ी यही अनुभव है कि अहंकार ही नुकसान करता है।
दादाश्री : हाँ, इसके लिए हम अहंकार निकाल देते हैं। फिर नुकसान करनेवाला चला गया। फिर सब विकनेस (कमजोरियाँ) भी
चली जाती हैं। सब विकनेस अहंकार है, इसलिए है। अहंकार चला गया तो विकनेस चली गई। फिर 'चंदूभाई क्या है, तुम क्या हो', उसका भेद हो जायेगा।
प्रश्नकर्ता : सेल्फ रीअलाइजेशन के नजदीक जाना है, तो अहम् नष्ट होना चाहिए न?
दादाश्री : हाँ, 'मैं हूँ, मेरा है' यह सब नष्ट होना चाहिए। हमें यह सब नष्ट हो गया है। इस 'पटेल' (दादाश्री) को कोई गाली दे तो 'हम' को स्पर्श नहीं होती। क्योंकि 'हम' 'पटेल' नहीं है। जहाँ तक हम मानते हैं कि, 'हम' 'पटेल' है, वहाँ तक अहंकार है।
प्रश्नकर्ता : अहंकार का चला जाना, वह तो बहुत मुश्किल है?
दादाश्री : अहंकार बढ़ाना वह भी बहुत मुश्किल है और अहंकार खत्म करना भी बहुत मुश्किल है। किसी गरीब आदमी को अहंकार बढ़ाना हो, तो वह बढ़ा नहीं सकता।
अहंकार खत्म करने के लिए क्या करना चाहिए कि ऐसा कोई आदमी हो कि जिसका अहंकार खत्म हुआ है, उनके पास जाने से, वहाँ बैठने से अपना भी अहंकार खत्म हो जाता है। दूसरा रस्ता ही नहीं है। बिना अहंकारवाला आदमी कभी कभार दुनिया में होता है, तब अपना काम निकाल लेना चाहिए।
जय सच्चिदानंद
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________________ प्राप्तिस्थान दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें हिन्दी 1. ज्ञानी पुरूष की पहचान 10. हुआ सो न्याय 2. सर्व दुःखों से मुक्ति 11. चिंता 3. कर्म का विज्ञान 12. क्रोध 4. आत्मबोध 13. प्रतिक्रमण 5. मैं कौन हूँ? 14. दादा भगवान कौन? 6. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी 15. पैसों का व्यवहार 7. भूगते उसी की भूल 16. जगत कर्ता कौन? 8. एडजस्ट एवरीव्हेयर 17. अंत:करण का स्वरूप 9. टकराव टालिए English 1. Adjust Everywhere 15. Money 2. The Fault of the sufferer 16. Celibacy : Brahmcharya 3. Whatever has happened is Justice 17. Harmony in Marriage Avoid Clashes 18. Pratikraman Anger 19. Flawless Vision 6. Worries 20. Generation Gap 7. The Essence of All Religion 21. Apatvani-1 8. Shree Simandhar Swami 22. Apatvani-2 9. Pure Love 23. Apatvani-9 10. Death: Before, During & After... 24. Noble Use of Money 11. Gnani Purush Shri A.M.Patel 25. Life Without Conflict 12. Who Am I? 26. Science in Speech 13. The Science of Karma 27. Trimantra 14. Ahimsa (Non-violence) 28. Guru and Disciple दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी बहुत सारी पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में दादावाणी मेगेजीन प्रकाशित होता है। दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सीमंधर सीटी, अहमदाबाद-कलोल हाइ-वे, पोस्ट : अडालज, जि. गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 3983 0100 / e-mail : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाइ-वे, तरघडीया चोकडी, पोस्ट : मालियासण, जी. राजकोट. फोन : 99243 43416 मुंबई : श्री मेघेश छेडा, फोन : (022) 24113875 बेंग्लोर : श्री अशोक जैन, 9341948509 कोलकत्ता : श्री शशीकांत कामदार, 033-32933885 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 100, SW Redbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel: 785-271-0869,E-mail : bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel.: 951-734-4715, E-mail: shirishpatel@sbcglobal.net U.K. : Dada Centre, 236, Kingsbury Road, (Above Kingsbury Printers), Kingsbury, London, NW9 OBH Tel.: 07956476253, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4, Halesia Drive, Etobicock, Toronto, M9W 6B7. Tel. : 416675 3543 E-mail: ashadinsha@yahoo.ca Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org