________________
अंत:करण का स्वरूप
Lok
अंत:करण का स्वरूप
नहीं आता। जो जैन है, उसके अंदर मांसाहार की ग्रंथि ही नहीं। वैष्णव को इतनी छोटी ग्रंथि है और मुस्लिम की इतनी बड़ी ग्रंथि है। जो ग्रंथि है, वही विचार आएगा, दूसरा विचार नहीं आएगा। विचार तो बहुत प्रकार के हैं, मगर आपके अंदर जितनी ग्रंथि है, उतना ही विचार आएगा। ___ग्रंथि कैसे पैदा होती है? अभी इस जन्म में मांसाहार नहीं खाएगा, मगर आप किसी मुस्लिम लडके की संगत में आ गये और उसने आपको कहा कि 'मांसाहार करने में मज़ा आएगा', तो इससे आपका अभिप्राय हो गया कि 'यह सही है, सच बात है।' फिर आप भी मन में भावना करेंगे कि 'मांसाहार खाने में कोई दिक्कत नहीं।' तो उसकी ग्रंथि हो जाती है और यह ग्रंथि फिर मन में चली जाती है। फिर अगले जन्म में आप मांसाहार खाओगे। आपकी समझ में आता है? इसलिए कभी ऐसा फ्रेन्डसर्कल (मित्रमंडल) नहीं करना। जो मित्र शाकाहारी हों उन्हें ही साथ रखना। क्योंकि ग्रंथि आपने बनाई है। मन को भगवान ने नहीं बनाया है। मन को आपने ही बनाया है।
मन है वह अभी डिस्चार्ज हो रहा है। जो चार्ज हो गया था, वह डिस्चार्ज होता है। वह डिस्चार्ज तो कैसा भी हो जाये। मगर जिस तरह के भाव से चार्ज हुआ है, उसी तरह के भाव से डिस्चार्ज हो रहा है। दूसरा कुछ नहीं है।
'ज्ञानीपुरुष' होते हैं, उन्हें निग्रंथ (बिना ग्रंथिवाले) कहा जाता है। निग्रंथ का अर्थ क्या है? कि हमारा मन एक सेकिन्ड भी अटकता नहीं है। आपका मन कैसा है? पाव-पाव घंटा, आधा-आधा घंटा तक वहीं घूमता रहता है। जैसे मक्खी गुड़ के पीछे फिरती है, ऐसा तुम्हारा मन फिरता है, क्योंकि आप ग्रंथिवाले हैं। हमारा मन ऐसा नहीं है। वो मन कैसा है? जैसे फिल्म चलती है, ऐसा है। उसे फिल्म की माफिक हम देखते हैं कि कैसी फिल्म चलती है!
एक नागर हमारे यहाँ दर्शन करने आता था। वह लोभी आदमी था। उसकी उमर भी ज्यादा हो गई थी। उसे मैंने बोल दिया कि तुम रोज ऑटोरिक्षा में आओ-जाओ। क्यों तकलीफ भुगतकर आते हो? फिर
पैसों का क्या करोगे? लड़का भी कमाता है। वह कहने लगा कि क्या करूँ, मेरा स्वभाव ऐसा लोभी हो गया है। सब लोग खाना खाने बैठे
और मैं सबको लड्डु बाँटने जाता था तो सबको आधा-आधा बाँटता था। हमारे घर का लड्ड नहीं, फिर भी लड्ड तोड़कर आधा-आधा देता था, मेरा स्वभाव ही ऐसा है। तो मैंने उसे बताया कि इस लोभ से तो तुमको बहुत दुःख होगा। वह लोभ की ग्रंथि हो गई है।' उसे तोड़ने का उपाय बताया कि 'पंद्रह-बीस रुपये का चिल्लर (छद्रा पैसा) ले लो और इधर ऑटोरिक्षा से आओ। फिर रस्ते में आते समय थोड़ा थोड़ा पैसा रास्ते पर फेंकते हुए आओ।' उसने एक दिन ऐसा किया। उसे बहुत आनंद हुआ। ऐसे आनंद का रास्ता मैंने बता दिया। पैसा फेंक दिया तो क्या दरिया में चला गया? नहीं, रास्ते में से लोग ले जाएँगे। इधर रास्ते पर पैसा रहता ही नहीं। तुमको इसमें क्या फायदा होता है कि अपना जो मन है, वह मन को समझ में आ जाएगा कि अभी अपना कुछ नहीं चलेगा। फिर लोभ की ग्रंथि टूट जाएगी। ऐसे पैसा पंद्रह-बीस दिन फेंको तो आनंद इतना बढ़ता है और मन फिर हाथ ही नहीं डालेगा। मन समझ जाएगा कि ये तो हमारा कछ मानता ही नहीं। मन खला हो जाता है।
कितने अवतार से आपका मन है? प्रश्नकर्ता : मालूम नहीं। यह मन कैसे पैदा होता है?
दादाश्री : सारी दुनिया मन से घबराती है। मन क्या है उसे समझना चाहिए। मन दूसरी कोई चीज़ नहीं है, पिछले जन्म का ओपिनिअन (अभिप्राय) है। पिछले एक ही जन्म का ओपिनिअन है। आज का आपका ओपिनिअन है, वह आज के ज्ञान से होता है। आपने जो ज्ञान सुना है, जो ज्ञान पढ़ा है, इससे आज का ओपिनिअन है। पिछले जन्म में जो ज्ञान था, उससे जो ओपिनिअन था, वह सब
ओपिनिअन आज का यह मन बोलता है। इससे दोनों में झगड़ा रहा करता है। इस तरह मन से सारी दुनिया परवश हो गई है और दुःखीदु:खी हो गयी है।