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अंत:करण का स्वरूप
अंत:करण का स्वरूप
हैं? ज्ञान और दर्शन के बीच क्या अंतर है? कि आप अंधेरे में बगीचे में बैठे हैं, बिल्कुल अंधेरा है और सत्संग की बात कर रहे हैं। अंधेरे में सत्संग की बात करने में कोई दिक्कत होती है? मगर पास में कुछ आवाज आयी तो यह भाई बोलने लगे कि, 'कुछ है।' आपने भी बोला कि 'कुछ है।' हम भी बोले कि 'कुछ है।' 'कुछ है' ऐसा जो ज्ञान हुआ न, उसे 'दर्शन' बोला जाता है। सब फिर विचार करेंगे कि 'क्या है?' जिधर से आवाज आयी थी सब उधर गये, तो वहाँ गाय थी। हम बोलेंगे कि 'यह तो गाय है।' आप भी बोलेंगे कि 'यह गाय है।' तो इसको 'ज्ञान' बोला जाता है। अनडिसाइडेड ज्ञान को 'दर्शन' बोला जाता है और डिसाइडेड ज्ञान को 'ज्ञान' बोला जाता है। पूरा आपकी समझ में आ गया? ज्ञान-दर्शन दोनों इकट्ठे हो जायें, तो चित्त हो जाता है। ज्ञान-दर्शन अशुद्ध हों, तब तक चित्त होता है, और ज्ञान-दर्शन दोनों शुद्ध हों, वह आत्मा है। चित्त अशुद्ध देखता है, 'खुद' को नहीं देखता। "यह मेरी सास है, यह मेरा ससुर है, यह मेरा भाई है,' ऐसा अशुद्ध देखता है, वह अशुद्ध चित्त है। चित्त की शुद्धि हो गई, फिर आत्मज्ञान हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : तो प्रज्ञा किसे कहते हैं?
दादाश्री : चित्त पूर्ण शुद्ध हो गया तो आत्मा हो गया। जब आत्मा प्राप्त हो जाता है, तब प्रज्ञा शुरू हो जाती है ऑटोमेटिकली (अपने आप)! एक अज्ञा है और दूसरी प्रज्ञा है। अज्ञा है तब तक वह संसार में से निकलने नहीं देगी। संसार की यह चीज़ बताती है, वह चीज़ बताती है, मगर संसार से बाहर जाने नहीं देती। बुद्धि है तब तक अज्ञा है। बुद्धि से बात समझ में आती है, मगर वह प्यॉर (शुद्ध) दिखाती नहीं। बुद्धि इन्डिरेक्ट (वक्र) प्रकाश है और ज्ञान डिरेक्ट (सीधा) प्रकाश है। ज्ञान मिल गया तो प्रज्ञा हो गई और प्रज्ञा है वह मोक्ष अनुगामी है। अगर हम ना बोलेंगे तो भी कैसा भी करके वह मोक्ष में ही ले जायेगी।
यहाँ बैठे बैठे तुम्हारा चित्त घर जाता है, मन घर नहीं जाता ।
सब लोग बोलते हैं, हमारा मन घर चला जाता है, इधर चला जाता है। वो सच बात नहीं है। मन तो इस शरीर में से कभी निकलता ही नहीं। वह चित्त बाहर चला जाता है। कोई लड़का पढ़ रहा है, मगर उसे लोग क्या बोलते हैं कि तुम्हारा चित्त इधर पढ़ने में नहीं है, तुम्हारा चित्त क्रिकेट में है। मन ऐसा नहीं देख सकता। मन तो अंधा है। सिनेमा देखकर आया, फिर भी चित्त उसे देख सकता है। यह चित्त ही बाहर भटक भटक करता है और ढूँढता है कि किसमें सुख है। सबको दो चीजें परेशान करती हैं, मन और चित्त।
मन इस शरीर में से बाहर निकल ही नहीं सकता। मन इस शरीर में से बाहर निकले तो सब लोग फिर घुसने नहीं दें। मगर वह बाहर निकलता ही नहीं। मन तो विचार की भूमिका है। वह, विचार के सिवाय कुछ भी काम नहीं करता। सिर्फ विचार ही करता है। सब जगह भटकता है, बाहर फिरता है, वह चित्त है। चित्त यहाँ से घर जाकर टेबल, कुर्सी, अलमारी सब देखता है। घर में, लड़का, लड़की, औरत को भी देखता है, वह चित्त है। बाजार में अच्छा देखा तो खरीद लेने का विचार किया, तो वहाँ भी चित्त चला जाता है। सब देख सकता है, वह चित्त है। मगर अभी अशुद्ध चित्त है। वह शुद्ध हो जाये तो सब काम पूरा हो जाता है, सच्चिदानंद हो जाता है।
सच्चिदानंद तो सभी बात का एक्सट्राक्ट (सार) है। जो आत्मा है, वह सच्चिदानंद है। भगवान है, वही सच्चिदानंद है। सच्चिदानंद में सत् है। जगत में कोई आदमी पाँच इन्द्रिय से देखता है, वह सत् नहीं है। सत् किसे बोला जाता है कि जो पर्मनेन्ट (शाश्वत) है। ऑल धिस रिलेटिव आर टेम्पररी एडजस्टमेन्टस (ये सारी रिलेटिव बातें अस्थायी एडजस्टमेन्ट है)। जो टेम्पररी है, उसे सत् नहीं कहा जाता। चित्त यानी ज्ञान-दर्शन। सत्-चित्त यानी सच्चा ज्ञान और सच्चा दर्शन। जो टेम्पररी को देखता है, वह अशुद्ध ज्ञान-दर्शन है, यानी अशुद्ध चित्त है। यह तो चित्त की अशुद्धि हो गई है। चित्त की शुद्धि हो जाये तो काम हो गया। चित्त की शुद्धि हो जाये तो उसे सत्-चित बोला जाता है। सत्चित से आनंद ही मिलता है।