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अंत:करण का स्वरूप
अंत:करण का स्वरूप
है! जो 'मिला है' बोलता है वह भ्रांति से बोलता है। उसे खबर ही नहीं कि आत्मा क्या चीज़ है। आत्मा तो खुद ही परमात्मा है। वह यदि मिल गया तो खुद ही परमात्मा हो गया। जहाँ तक 'हे भगवान! यह करो, वह करो' बोलता है, वहाँ तक 'मैं खुद भगवान हूँ, मैं खुद परमात्मा हूँ' ऐसा बोलने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता। जब तक 'मैं-तू, मैं-तू' रहता है, तब तक तो उसने कुछ भी नहीं कमाया।
प्रश्नकर्ता : उसके लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : नहीं, उसके लिए कुछ नहीं करना चाहिए। ऐसा कोई आदमी ही नहीं है, जो कुछ भी कर सके। क्योंकि यु आर टोप, तुम लट्र हो। तुम्हारी कोई शक्ति ही नहीं है। तमको प्रकृति चलाती है। क्योंकि 'तुम कौन हो' वह तुमको मालूम नहीं है। तुम्हारी सत्ता क्या चीज़ है? तुम क्या करनेवाले हो? जो प्रकृति को जानता है, प्रकृति के आधार से चलता है और खुद को भी जानता है, खुद के आधार से चलता है, दोनों अलग हैं। जो स्व-पर प्रकाशक हो गया है, वह सब कुछ कर सकता है। सारी दुनिया के लोगों को हम टोप्स (लटट) बोलते हैं। अगर सच जानना है, तो ओल आर टोप्स (सब लटू हैं)! प्रकृति नचाती है, ऐसा तुम नाचते हो, फिर बोलते हो, 'मैं नाचता हूँ।' ज्ञानीपुरुष को तो अंदर 'स्व' और 'पर' दोनों अलग ही रहते हैं और उसमें लाइन ओफ डिमार्केशन (भेदरेखा) होती है। 'पर' प्रकृति का विभाग है, अनात्म विभाग है और 'स्व', खुद का विभाग है, आत्म विभाग है। उनको होम डिपार्टमेन्ट (आत्म विभाग)और फोरिन डिपार्टमेन्ट (अनात्म विभाग) दोनों अलग ही रहते हैं। ज़रूरत पड़े तो फोरिन (अनात्म) में आते हैं, प्रकाशक रूप में। मगर क्रिया नहीं करते कभी। आत्मा क्रिया कर सकता ही नहीं। वह, दर्शनक्रिया और ज्ञानक्रिया ही करता है। मात्र ये दो क्रियाएँ करता है। यह जो हमें दिखती हैं, ऐसी क्रिया करने की उसकी शक्ति ही नहीं है। इनको ऐसा करने की इच्छा हो तब वह कल्पना मात्र से कर सकता है। किसी अंग की कोई जरूरत नहीं है। कल्पना की तो अंगवाला हो जाता है। यह कल्पना से ही जगत
खड़ा हो गया है। फिर उसे सब चीज़ आकर मिलती है। बाद में उसे यह सब पसंद नहीं आता, इसलिए वह मोक्ष की मांग करता है कि, 'हे भगवान ! हमें यह सब नहीं चाहिए। हमें मोक्ष ही चाहिए।' जो भगवान है, उसकी एक कल्पना से सारा जगत खड़ा हो जाता है ! इतनी कल्पना की शक्ति है! भगवान में कल्पना की शक्ति है मगर दूसरी अपने जैसी शक्ति नहीं है, अहंकार नहीं है।
किस लिए अहंकार करना? बड़े आदमी को अहंकार करने की क्या ज़रूरत है? छोटा आदमी ही अहंकार करता है। जो बड़ा है उससे कोई बड़ा नहीं, उसको अहंकार की ज़रूरत क्या है? मैं खुद ही जानता हूँ कि मुझसे ब्रह्मांड में कोई बड़ा नहीं है, तो मुझे अहंकार की जरूरत क्या है? मैं तो बालक की तरह रहता हूँ। हमें कोई गाली दे तो हम आशीर्वाद देते हैं। हम जानते हैं कि उस बिचारे को समझ नहीं है और दृष्टि नहीं है। उसे हम निर्दोष देखते हैं । जगत में हमें कोई दोषी नहीं दिखता। हमें सबका आत्मा दिखता है और प्रकृति दिखती है। पहले पुरुष हो जाओ, फिर पुरुष देखो। फिर कोई दोषी दिखेगा ही नहीं। भगवान महावीर कैवल्य ज्ञान में थे, उनको सभी एक समान निर्दोष लगते थे। उनकी दृष्टि में चोर चोरी करता है, वह भी सही था और दानवीर दान देता है, वो भी सही था।
अहंकार का जजमेन्ट (फैसला) दादाश्री : तुममें कोई भूल है या नहीं? प्रश्नकर्ता : हाँ, है न । दादाश्री : कितनी? दो-चार होगी?
प्रश्नकर्ता : विचार करें कि हमारी कहाँ कहाँ गलती हुई है, तो काफी गलतियाँ निकलेगी, क्योंकि आत्मा का 'जजमेन्ट' गलत नहीं होगा।
दादाश्री : यह आत्मा का 'जजमेन्ट' नहीं है । यह अहंकार का