Book Title: Angsuttani Part 02 - Bhagavai
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 1117
________________ १५।१८६ २४।३१ ८।२५५ ८.३३० २०११४ ६।२२४ १।१४६ १९ उक्कोसकालट्टिइयंसि जाव उव्वट्टित्ता उक्कोसकालट्ठितीएसु जाव उववज्जित्तए उक्खित्ते जाव रत्ते उग्गमण जाव उच्चत्तेणं उच्चारपासवण जाव परिद्वावणिया० उज्जले जाव दुरहियासे उढाणे जाव परक्कमे उड्ढंजाणू जाव विहरइ उत्तर जाव राई उत्तरिल्लं जाव गच्छति उदएणं जाव पयोग उदगबिंदु जाव हंता उदगरयणे जाव तच्चाए उदीरिए जाव निजरिज्जमाणे उप्पत्तियाए जाव पारिणामियाए उप्पत्तिया जाव पारिणामिया उप्पन्ननाणदंसणधरा जाव सव्व० उप्पन्ननाणदंसणधरे जाव समोसरणं उप्पन्ननाणदंसणधरे जाव सव्वण्णू उप्पाडेज्जा जाव केवलं उब्भिज्जमाणाण वा जाव ठाणाओ उम्मुक्कबालभावे जाव रज्जवई उवट्ठवेह जाव उवट्ठवेंति जाव पच्चप्पिणंति उवट्ठाणसालं जाव पच्चप्पिणंति उववज्जिहिति जाव उव्वट्टित्ता उववज्जिहिति जाव किच्चा उवागच्छइ जाव नमंसित्ता जाव एवं उवागच्छित्ता जाव एगंतमंते उवागच्छित्ता जाव दुरूढा उवागच्छित्ता जाव नमंसित्ता उवागच्छित्ता जाव विहरइ उसभ जाव भत्तिचित्तं उस्सवणयाए तिहिं, उस्सवणयाए वि निसिरणयाए वि नो दहणयाए चउहि, जे भविए उस्सवणयाए १५।१८६ २४।७६ ८।२५५ ८।३३० २०११५ १५।१४६ ११३७८; १७।३० ५१८५; १०॥४३; १८।१६४ ५७ १६।११६ ८।४२१ ६१४ १५९२ ६।२२८ १७/३० २०१२० १२।१६७ २।२२ १५।१२६ है।३१ १६।१०६ ११।१४२ १२।३५,३६ ११।१३७ १५।१८६ १५।१८६ १४।१३२ १५७३ १२।३७ १६।५४ १३।१०१ ११११३८ १६।११६ ८।४२० ६।४ १५११ १।११ १२।१०६ १२।१०६ १३८ वृत्ति वृत्ति ६।२३,२५ वृत्ति ११।१३४ ६।१६०,१६१ ११११३६ १५।१८६ १५।१८६ १११० १५५६ ६।१४४ २१५७ १७ ओ० सू० १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 1115 1116 1117 1118 1119 1120 1121 1122 1123 1124 1125 1126 1127 1128 1129 1130 1131 1132 1133 1134 1135 1136 1137 1138 1139 1140 1141 1142 1143 1144 1145 1146 1147 1148 1149 1150 1151 1152 1153 1154 1155 1156 1157 1158