Book Title: Angsuttani Part 02 - Bhagavai
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 1130
________________ ११३०५ हा२०८ ११११६६ ३।१५७ १।२९७ २।३० २०६३ ३।१५४ ७।१६६-१७२ ६।१४३ १६।६७ ८।३४ ६।१६३-१६७ ६८३ ओ० सू० १६ ८.३४ घणवाए० चउकक जाव पहेसु चउत्थ जाव विचित्तेहि चउभंगो चउभंगो जहा छ? सए नवमे उद्देसए तहा इह वि भाणियव्वं, नवरं अणगारे इह गई च इह गते चेव पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, सेसं तं चेव जाव लुक्खपोग्गलं निद्धपोग्गलताए परिणामेत्तए हंता पभू ! से भंते ! कि इहगए पोग्गले परियाइत्ता जाव नो अण्णत्थमए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ चंदिम जाव तारारूवा चक्केण जाव पकढिज्ज० चक्खिदिय जाव परिणया चच्चर जाव बहुजणसद्दे इ वा जहा प्रोववाइए जाव एवं ० चडगर जाव परिक्खित्त चरमाणे जाव एगजंबुए चरमाणे जाव जेणेव चरमाणे जाव विहरमाण चरमाणे जाव समोसढे चरमाणे जाव सुहंसुहेणं चलिए जाव निज्जरिज्जमाणे चितिए जाव समुप्पज्जित्था चिट्ठामि जाव गिलामि जाव एवामेव चित्तविचित्त जाव पडिबुद्धे चेव जाव अप्पवेयण चेव जाव अप्पवेयण चव जाव चिट्ठित्तए चेव जाव महावेयण चेव जाव महावेयण छटुंछट्टेणं जाव आयावेमाणं छटुंछट्रेणं जाव आयावेमाणस्स छद्रं तं चेव जाव जिणसइं ओ० सू० ५२ ६।१६२ ११७ ११७ १७ ११७ १७ ६।१५७ ६।१६५ १६१४८ १५।१४५ १३।१०१ १८।१३७ ६।२२३ १।११,४४३ २।४६,६६ २०६६ १६६१ ७।२२६ १८।१०० ५।१११ ७।२२६ १८।१०० १५।१७६ ११११८७ १५।१३ १।११ २०३१ २०६४ १६१६१ ७।२२६ ५।१३३ ५।११० ७।२२६ ५।१३३ ३।३३ ११।१८६ २।११०१५।१२ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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