Book Title: Anekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04 Author(s): Padmachandra Shastri Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 3
________________ आचार-शून्य ज्ञान, कार्यकारी नहीं - पूर्वाचार्यों कुन्दकुन्द आदि ने आगमों द्वारा 'दिशा- बोध' दिया था, आज भी विद्वानों व सार्धं वाचकों में 'दिशा-बोध' देने की होड़ लगी हुई है और इसके लिए सबने भाषा समिति को तिलांजलि तक दे, लम्बी-लम्बी वाचनाएँ देनी आरम्भ कर रखी हैं। कहने को प्रायः प्रबुद्ध साधु और श्रावक को अपने योग्य दिशा-बोध प्राप्त है । वह जानता है कि साधु के 28 मूलगुण क्या हैं? और श्रावक के अष्ट मूलगुण क्या हैं? ऐसी अवस्था में उसे 'दिशा-बोध' के स्थान पर तदनुरूप आचारण का मूर्तरूप उपस्थित करने कराने की आवश्यकता है । यतः धर्म तो आचार का नाम है । खेद है कि आज आचार की दुर्दशा है, वह उल्टा लटक रहा है दूसरे शब्दों में प्राचीन काल में जिन साधु विद्वान् सेठों की जिस जमात ने धर्म विहित आचार की रक्षा और प्रभावना की थी आज उन्हीं के नामधारी तिगड्डे ने प्रचार के बहाने स्व-प्रशंसा की ध्वजा तक को हाथों से थाम लिया है। प्रायः साधु २८ मूल गुणों का पालन नहीं कर रहा, कथित विद्वान धर्म-विहित ज्ञान- आचार की बिक्री कर रहा है और सेठ साहुकार व समाज में बने बैठे नेता यश-अर्जन मात्र के लिए धन पानी की तरह बहा रहे हैं। साधु प्रायः सांसारिक सुविधाओं की चाह में तथा कथित जयकारे करने-कराने वाली जमात जोड़ रहा है, कथित विद्वान् लेखन अथवा धार्मिक क्रिया काण्ड संपन्न कराने द्वारा दक्षिणा समेटने के चक्कर में है और धनिक वर्ग ना चाहते भी पंच कल्याणक आदि में स्व तथा चन्दा द्वारा संचित धन खर्च कर यश अर्जन में लगा है- आचार पालन से किसी का प्रयोजन नहीं । प्रयोजन है तो मात्र फोटो खिंचाने, मान-बडाई के संग्रह आदि से। गहराई से विचारा जाय तो आज धर्म-प्रचार के नाम पर आयोजकों का स्वयं का प्रचार है, आचारधर्म का पतन ही है। लोग इतना जान लेते हैं कि अमुक चहल-पहल का श्रेय अमुक साधु, पंडित अथवा अमुक कार्यकर्ता को है, वे उसके जयकारे करने लगते हैं उसे प्रसिद्धि देते नहीं अघाते । उक्त आचारहीनता के परिप्रेक्ष्य में ऐसा दिखता है कि समाज की भावी पीढ़ी (पोते-पड़पोते आदि) की दृष्टि से दिगम्बरत्व का मूल स्वरूप ही ओझल हो जायगा । वर्तमान स्थिति के परिप्रेक्ष्य में (जैसा वे देखते या देखेंगे) वे इतना ही सीख पाएंगे कि दिगम्बरत्व वहाँ है जहाँ नग्न रहकर, पराई संभाल में लगा रहा जाता हो, मंदिर - मठ व संस्थाओं की स्थापना करा उनका संचालन किया जाता हो आदि । यह सब तो कुन्दकुन्द विहित आचार से सर्वथा उल्टा है। ऐसा प्रतीत होता है कि आज का 'दिशा बोध' दाता-पक्ष, जैनतरों के ईश्वर की भाँति कृतकृत्य हो चुका है, उसे अपना कुछ करना शेष नहीं, केवल सृष्टि के संभाल व बिगाड़ में लगा रहता है। बलिहारी है इस - दिशा- बोध' की प्रक्रिया को, जहाँ आचार शून्यता का बोल-बाला हो । - संपादकPage Navigation
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