Book Title: Anekant 1954 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 16
________________ 50 ] संसारका प्रत्येक देश विविध उपायोंसे अपनी शक्तिको संचित करने और एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। इस तरह प्रत्येक देश की खुदगर्मी ( स्वार्थ तत्परता ) ही उन्हें पनपने नहीं दे रही है। और संसारके सभी मानव आगत युद्धकी उस भयानक विभीषिकासे मन्त्रस्त हो रहे हैं--भयभीत हैं प्रशान्त और उद्विग्न हैं: वे शान्तिके इच्छुक होते हुए भी बेचैन हैं; क्योंकि उनके सामने एटमबमले होने वाले हिरोशिमाके विनाशक परि बाम सामने दिख रहे हैं। भौतिक अस्त्र शस्त्रोंका निर्माण एवं संग्रह उनकी उस विनाशसे रक्षा करनेमें नितान्त बसमर्थ है। अनेकान्त युद्ध से कभी शान्ति नहीं मिलती प्रत्युत प्रशान्ति भुखमरी एवं निर्धनता ( गरीबी ) तथा बेकारी बढ़ती है इससे मानव परिचित है और युद्धोत्तर कठिनाइयोंको भोग कर अनुभव भी प्राप्त कर चुका है । अतः युद्ध किसी भी शान्तिका प्रतीक नहीं हो सकता। तो फिर उक्त प्रशां तिके दूर करने का क्या उपाय है ? तरह शान्तिके दूर करनेका उपाय अहिंसा विश्वको इस अशान्तिको दूर करनेका एक ही अमोघ उपाय है और वह है अहिंसा । यही एक ऐसा शस्त्र है जिस पर चलने से प्रत्येक मानव अपनी सुरक्षा की गारन्टी कर सकता है और अपनी श्रान्तरिक अशान्तिको दूर करने में समर्थ हो सकता है। जब तक मानव मानवताके रहस्य से अपरिचित रहेगा अर्थसंग्रह अथवा परिग्रहकी अपार तृष्णारूपी दाहसे अपनेको खाता रहेगा तब तक वह अहिंसाकी उस महत्ता से केवल अपरिचित ही नहीं रहेगा किन्तु विश्वकी उस अशान्तिसे अपनेको संरक्षित करने में सर्वथा असमर्थ रहेगा । अहिंसा जीवन- प्रदायनी शक्ति है यह अहिंसाको ही महत्ता है जो हम समष्टिरूप से एक स्थानमें बैठ सकते हैं, एक दूसरेके विचारोंको सुन सकते हैं, एक दूसरे के सुख दुःखमें काम श्राते हैं, उनमें प्रेमभावकी वृद्धि करने में समर्थ हो सकते हैं । यदि अहिंसा हमारा स्वाभाविक धर्म न होता तो हम कभी समष्टिमें एक स्थान पर प्रेमसे बैठ भी नहीं सकते, विचार सहिष्णुता होना तो दूर की बात है। हम कभी-कभी दूसरेके वचनोंको सुनकर श्राग-बबूला हो जाते हैं प्रशान्त होकर अपने सन्तुलनको खोकर असहिष्णु बन जाते हैं, यह Jain Education International [ वर्ष १३ हमारी ही कमजोरी है, कायरता है, पाप है, हिंसा है। इस पाप से छुटकारा हिंसाके विना नहीं हो सकता । अहिंसा श्रात्माका गुण है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति वीर पुरुष में होती है, कायर में नहीं; क्योंकि वह आत्मघाति है, जहां वीरता और आत्म-निर्भयता है वहीं हिंसा है। और जहां कायरता, बुजदिली एवं भयशीलता है वहां हिंसा है| कायरता के समान संसार में अन्य कोई पाप नहीं है; क्योंकि वह पापोंको प्रश्रव अथवा श्राश्रय देती । है। कायर मनुष्य मानवीय गुणोंसे भी वंचित रहता है, उसकी आत्मा हर समय डरपोक बनी रहती है और वह किसी एक विषयमें स्थिर नहीं हो पाता उस पर दुःख और उद्वेग अपना अधिकार किये रहते हैं उसका स्वभाव एक प्रकारसे दब्बू हो जाता है वह दूसरोंकी कुत्सित वृत्तिके ख़िलाफ़ या उनके सद्व्यवहारके प्रतिपक्ष में कोई काम नहीं कर सकता, किन्तु वह हिचकता भयखाता और शंकाशील बना रहता है कि कहीं वह अमुक बुरे कार्यमें मेरा नाम न ले दे मुझे ऐसे दुष्कर कार्य में न फंसा दे, जिससे फिर निकलना बड़ी कठिनतासे हो सके, इस तरह उसकी भयावह आत्मा अत्यन्त निर्बल और दयनीय हो जाती है, वह हेयोपादेयके विज्ञानसे भी शून्य हो जाता है इन्हीं सब कारणों से कायरता दुर्गुणोंकी जनक है और मानवकी अत्यन्त शत्रु है । परन्तु श्रहिंसा वीर पुरुषकी आत्मा है अथवा वही बलवान् पुरुष उसका अनुष्ठान कर सकता है जिसकी दृष्टि विकार रहित समीचीन होती है उसमें काबरतादि दुर्गुण अपना प्रभाव अंकित करने में समर्थ नही हो पाते; क्योंकि उसके चमा, वीरता, निर्भयता और धीरतादि गुण प्रकट हो जाते हैं जिनके कारण उसकी दृष्टि विकृत नहीं हो पाती, वह कभी शंकाशील भी नहीं होता किन्तु निर्भय और सदा निःशंक बना रहता है । उसमें दूसरोंके दोषोंको क्षमा करने अथवा पचानेकी क्षमता एवं सामर्थ्य होती है । वह आत्म प्रशंसा और पर छिद्रान्वेषण की वृत्तिसे रहित होता है, और अपनेको निरन्तर क्रोधादिदोषोंसे संरक्षित रखनेका प्रयत्न करता रहता है, उसकी निर्मल परिणति ही अहिंसाकी जनक है । भगवान महावीरने आजसे ढाई हजार वर्ष पहले मानव जीवनकी कमजोरियों, अपरिमित इच्छाओंअभीष्ट परिग्रहकी सम्प्राप्तिरूप आशाओं और मानवताशून्य अनुदार विचारों आदिसे समुत्पन्न उन भयानक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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