Book Title: Anekant 1954 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 25
________________ किरण-३] आत्महितकी बातें [८४ प्रज्ञप्ति' प्राकृत लिखाकर पं० मेधावीको प्रदानकी थी। उपसंहार (५) संवत् १५६० में माणिक बाई हूमड़ने, जो व्रत धारिणी प्राशा है पाठक इस लेखकी संक्षिप्त सामग्री परसे थी, गोम्मटसारपंजिका लिलाकर लघुविशालकीतिको नारीकी महत्ताका अवलोकन करेंगे, उसे उचित सम्मानके भेंट स्वरूप प्रदान की थी। ' साथ उसकी निर्बलताको दूर करनेका यत्न करेंगे और (६) संवत् १६६८ में हूंबड नातीय बाई दीरोखे लिखाकर श्रमणसंस्कृतिमें नारीकी महत्ताका मूल्यांकन करके नारी-जातिभ. सकलचन्द्रको प्रदान किया था । को ऊँचा उठानेके अपने कर्तव्यका पालन करेंगे। आत्महितकी बातें (तु० सिद्धिसागर) जब लोग निश्चल होनेके लिए बोलिप्सा और यह प्रश्न उन मनीषियोंके मानसमें ज्यों का त्यों पा माछलका परित्याग करके मन-वचन कायकी चंचलताका कर उनको कितनी बार नहीं जगा जाता?-फिर भी निरोध करनेके लिए उद्यम करते हैं तो सातों तत्वों पर मोटे लेने की प्रादतसे बाज नहीं भाते है वे, जो जागनेको विश्वास करने वाले मारमाको या सच्चे विश्वास ज्ञान पाप समझते हैं!! और पाचरणको प्रारमहितका वास्तविक रूप निश्चत तप अग्निके विना कोई भी कर्मों की राख नहीं बना करते हैं। सम्भव है चलने में पैर फिसल जाय किन्तु सकता। इच्छाके निरोध होने पर ही तपकी आग प्रज्वलित पैरको जमा कर रखनेका अभ्यास तो वे करते हैं-वे होती है। यह वह भाग है जो सुखको चरम सीमा तक क्रोधकी ज्वालासे जलते हुए गर्त में न गिर जावें इसके पहँचाने में समर्थ है। लिए यथा उद्यम भी करते हैं। यदि कभी-कभी क्रोधकी ___जो वस्तु पराई है और है वह विद्यमान तो उसे लपटोंसे वे मुखस जाते हैं उसे हेय तो अवश्य समझ लेते छोड़ने से सारी झमटें छूट जाती हैं। हैं। उनका दुर्भाग्य है जो अनंतानुबन्धी क्रोधकी भागमें जलते हैं। मानके पहारसे उतर कर वे सम्पूर्ण विद्या और मरते समय जब शरीर ही अलग हो जाता है तो चारित्रके सच्चे नेता होते हैं। कपरकी झपटमें कभी बे पर फिर शेष घर मादिक अपने कैसे हो सकते हैं अपने " आते हों तो चपेट भी अवश्य सहन करते ही हैं। आगामी . शान ज्ञान चेतनामय कतृत्वसे भिन्न अन्यका कर्ता होनेका तृष्णाको छोड़ने पर दुर्गतिका अन्त तो होता ही है किन्त साहस वे अन्तःकरणसे तन्मय होकर अनन्तानुबन्धी रूपसे सन्तोष और शान्तिकी लहर भी अवश्य दौड जाती है। नहीं कर सकते जो सम्यग्दर्शनकी नीव पर खड़े हैं। सत्यका सूर्य जिसके अन्तःकरणसे उदित होकर मुख- जीवोंका सहारा आप आप ही अपने में रहना है। गिरि पर चमक रहा है-क्या मजाल जो दुराग्रहियोंके गुरुकुलके गुरुकुल में रहते हुए स्नातक होना परम ब्रह्मचर्य बकवाद उसके सामने अधिक टिक सकें। वस स्याद्वादकी है। स्त्रीके किसी भी अवस्थामें दृष्टिगत हो जाने पर किरणोंसे चमकता हुअा अनेकान्त सूर्य उन जीवोंके विकृत न होना ब्रह्मचर्य है। उत्तम दश लक्षण वाले मोहान्धकारको दूर करने में समर्थ है जो निकट भव्य हैं- धर्मको निर्व्यसनी निष्पाप व्यक्ति पाने और रत्नत्रयसे उल्लूको सूर्य मार्ग नहीं बता सकता। त्रिगुप्ति गुप्त रह जावे तो भात्मा ही अपने हितका संयम जीवोंको कौनसा सुख १ नहीं देता अब भी सच्चा रूप है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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