________________
[वर्ष १३
८]
अनेकान्त वीर जिनवर वीर जिनवर नमू ते सार । तीर्थकर थी। इस उल्लेख परसे भो आर्या रत्नमती विक्रमकी १६वीं चौबीसवें । मनवांछित फलबहु दान दातार । निरमल शतीके मध्यकी जान पड़ती हैं। सारदा स्वामिनी वली तबू । लक्ष्मी चन्द्र, वीरचन्द्र अनेक विदुषी नारियोंने केवल अपना ही उत्थान नहीं किया, मनोहर । ज्ञान भूषण पाय प्रणमिनि। रत्नमति कहि अपने पतिको भी जैनधर्मकी पावन शरणमें ही नहीं लाई चंग, रास करूँ अति रूबडो । श्रीसमकिततणु प्रत्युत उन्हें जैनधर्मका परम आस्तिक बनाया है और अपनी भनिरास ॥१॥
संतानको भी सुशिक्षित एवं श्रादर्श बनानेका प्रयत्न किया भासरासनी
है। उदाहरणके लिये अपने पति मगध देशके राजा श्रेणिक चउवीस जिनवर पायनमीए, सारदा तणिय पसायनु। (बिम्बसार) को भारतीय प्रथम गणतन्त्रके अधिनायक मूलसंघ महिमानिलुए, भारती गच्छि सिंणगारनु ॥१॥ लिच्छिवि वंशी राजा चेटककी सुपुत्री चेलनाने बौद्धधर्मसे
पराङ् मुखकर जैनधर्मका श्रद्धालु बनाया है जिसके अभयकुंदकुंदाचारिजि कुलिईए, पद्मनन्दी शुभभावनु ।
कुमार और वारिषेण जैसे पुत्र रत्न हुए जिन्होंने सांसारिक देवेन्द्रकीरति गुरु गुण निलुए श्रीविद्यानिंद महंतनु ॥२॥
सुख और वैभवका परित्यागकर श्रात्म-साधनाको कठोर तपश्रीमल्लिभूषण महिमा निलुए, श्रीलक्ष्मीचंद्र गुणवंतनु ॥३ श्चर्याका अवलम्बन किया था। वीरचंद्र विद्या निलुए, श्रीज्ञानभूषण ज्ञानवन्तनु ।।४।। - इस तरह नारीने श्रमणसंस्कृतिमें अपना आदर्श जीवन गम्भीराणव, मेरु सारिषु धीरनु ।
वितानेका यत्न किया है। उसने पुरुषोंकी भांति आत्मसाधन दयाराणी जि श्रिम निवसए, ज्ञानतणु दातारनु ॥५॥ और धर्मसाधनमें सदा आगे बढ़नेका प्रयत्न किया है । अन्तिम भाग
नारीमें जिनेन्द्रभक्ति के साथ श्रुत-भक्तिमें भी तत्परता देखी शांती जिनवर शांती जिनवर नमिय ते पाय। जाती है, वे श्रुतका स्वयं अभ्यास करती थीं, समय-समय
पर ग्रन्थ स्वयं लिखती और दूसरोंसे लिखा-लिखाकर अपने रास कहूं सम्यक्ततणु सारदा तणिय पसाय मनोहर ।
ज्ञानावरनी कमके क्षयार्थ साधुओं, विद्वानों और तत्कालीन कुंदकुंदाचारिजि कुलि पद्मनन्दि गुरु जाणि।
भट्टारकों तथा आर्यिकाओंको प्रदान करती थीं, इस विषयके देविंदकीरति तेह पट्ट हुव वादी सिरोमणि बखाणि ॥ सैकड़ों उदाहरण हैं, उन सबको न देकर यहाँ सिर्फ ५-६ दूहा-विद्यानन्द तसु पट्ट हुवनि मल्लिभूषण महंत। उद्धरण ही नीचे दिये जाते हैं :लक्ष्मीचन्द्र तेह पछीरिसिणु यति य सरोमणि संत ।। (१) संवत् १४९७ में काष्ठासंघके प्राचार्य अमरकीर्ति द्वारा वीरचन्द्र पाटि ज्ञानभूषण नमीनि । चन्द्रमती बाई रचित 'षट कर्मोपदेश' नामक ग्रन्थकी १ प्रति ग्वालियरके नमी पाय । रत्नमती यो पिय रास करु, विमलमती, तंवर या तोमरवंशी राजा वीरमदेवके राज्यमें अग्रवाल कहिण थकी सार।। इति श्रीसमाकितरास समाप्तः। आर्या साहू जैतूकी धर्मपत्नी सरेने लिखाकर आर्यिका जैनश्री रत्नमती कृतं ॥ भ. पूजारावजी पठनाथे (श्रीरस्तु) । की शिष्यणी आर्यिका बाई विमलश्रीको समर्पित की थी। आर्या रत्नमतीने अपना यह रास अथवा रासा आर्या
(२) संवत् १६८५ में अग्रवालवंशी साहू बच्छराजकी सती विमलमतीकी प्रेरणासे रचा था। आर्या रस्नमतीकी गुरुश्राणी
साध्वी पत्नी 'पाल्हे' ने अपने ज्ञानावरणी कर्मके क्षपार्थ आर्या चन्द्रमती थी। यह ग्रंथ विक्रमकी १६वीं शताब्दीके
द्रव्यसंग्रहकी ब्रह्मदेवकृत वृत्ति लिखाकर प्रदान की। मध्यकालकी रचना जान पड़ती है। क्योंकि रत्नमतीकी उक्त गुरु परम्परामें निहित विमलमती वह विमलश्री जान पड़ती
) संवत् १५९५ में खण्डेलवालवंशी साहू छीतरमलकी है, जिनकी शिष्या विनयश्री भ. लक्ष्मीचन्द्रजी के द्वारा
पत्नी राजाहीने अपने ज्ञानावरणी कर्मके क्षयार्थ 'धर्मदीक्षित थी, जिन्होंने ६० आशाधरजी कृत महा-अभिषेक
..परीक्षा' नामक ग्रन्थ लिखकर मुनि देवनन्दिको प्रदान पाठकी ब्रह्म श्रुतसागर कृत टीका उक्र भट्टारक लक्ष्मीचन्दके किया। शिष्य ब्रह्म ज्ञानसागरको सं० १५५२ में लिखकर प्रदान की (४) संवत् १५३३ में धनश्रीने पद्मानन्द्याचार्यको 'जम्बूद्वीप
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org