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किरण ३]
अहिंसातत्त्व प्रवृत्तिके संम्मिश्रणसे हिंसाके नव प्रकार हो जाते हैं और जब किसी जीवको क्रोध, मान, माया और लोभादिके कारण कृत-स्वयं करना, कारित-दूसरोंसे कराना, अनुमोदन-किसी या किसी स्वार्थवश जानबूझ कर सताया जाता है या सताने को करता हुआ देखकर प्रसन्नता व्यक्त करना, इनसे गुणा अथवा प्राणरहित करनेके लिए कुछ व्यापार किया जाता है करने पर हिंसाके २७ भेद होते हैं। चूंकि ये सब कार्य उसे कषायसे हिंसा कहते हैं और जब मनुष्यकी आलस्यमय क्रोध, मान, माया, अथवा लोभके वश होते हैं। इसलिये असावधान एवं प्रयत्नाचार प्रवृत्तिसे किसी प्राणीका वधादिक हिंसाके सब मिलाकर स्थलरूपसे १०८ भेद हो जाते हैं। हो जाता है तब वह प्रमादसे हिंसा कही जाती है । इससे इन्हींके द्वारा अपनेको तथा दूसरे जीवोंको दुःखी या प्राण- इतनी बात और स्पष्ट हो जाती है कि यदि कोई मनुष्य रहित करनेका उपक्रम किया जाता है । इसीलिये इन बिना किसी कषायके अपनी प्रवृत्ति यत्नाचारपूर्वक सावधानीसे क्रियाओंको हिंसाकी जननी कहते हैं। हिंसा और अहिंसाका करता है उस समय यदि दैवयोगसे अचानक कोई जीव जो स्वरूप जैन ग्रन्थों में बतलाया गया है, उसे नीचे प्रकट आकर मर जाय तो भी वह मनुष्य हिंसक नहीं कहा जा किया जाता है
सकताः क्योंकि उस मनुष्यकी प्रवृत्ति कषाययुक्त नहीं है सा हिंसा व्यपरोप्यन्ते त्रसस्थावराङ्गिनाम् । और न हिंसा करनेकी उसकी भावना ही है यद्यपि द्रव्यहिंसा प्रमत्तयोगतः प्राणा. द्रव्य-भारस्वभावकाः ।।
जरूर होती है परन्तु तो भी वह हिंसक नहीं कहा जा सकता -अनगारधर्मामृते, आशाधरः ४, २२
और न जैनधर्म इस प्राणिवातको हिंसा कहता है । हिंसात्मक
परिणति ही हिंसा है, केवल द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं कहलाती, अर्थात्-क्रोध-मान माया और लोभके अाधीन होकर
द्रव्यहिंसाको तो भावहिंसाके सम्बन्धसे ही हिंसा कहा जाता अथवा अयत्नाचारपूर्वक मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिसे त्रसजीवों
है। गस्तवमें हिंसा तब होती है जब हमारी परिणति प्रमादके-पशु पक्षी मनुष्यादि प्राणियोंके-तथा स्थावर जीवों
मय होती है अथवा हमारे भाव किसी जीवको दुःख देने या के - पृथ्वी, जल, हवा और वनस्पति श्रादिमें रहने वाले सूक्ष्म जीवोंके-द्रव्य और भावप्राणोंका घात करना हिंसा
सतानेके होते हैं । जैसे कोई समर्थ डाक्टर किसी रोगीको कहलाता है। हिंसा नहीं करना सो अहिंसा है अर्थात् प्रमाद
नीरोग करनेकी इच्छासे ऑपरेशन करता है और उसमें दैवव कषायके निमित्तसे किसीभी सचेतन प्राणीको न सताना,
योगसे रोगीकी मृत्यु हो जाती है तो वह डाक्टर हिंसक नहीं मन वचन-कायसे उसके प्राणोंके घात करनेमें प्रवृत्ति नहीं
कहला सकता और न हिंसाके अपराधका भागी ही हो सकता
है। किन्तु यदि डाक्टर लोभादिके वश आन बूझकर मारनेके करना न कराना और न करते हुएको अच्छा समझना . 'अहिंसा' है । अथवा
इरादे से ऐसी क्रिया करता है जिससे रोगीको मृत्यु हो जाती
है तो जरूर वह हिंसक कहलाता है और दण्डका भागी भी शादीमणप्पा अहिंसगत्तेति भासिदं समये। होता है। इसी बातको जैनागम स्पष्ट रूपसे यों घोषणा तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेति जिणेहिं णिहिट्ठा ॥
करता है :-तत्त्वार्थवृत्ती, पूज्यपादेन उद्धृतः । उच्चालदम्मिपादे इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे। अर्थात्-प्रात्मामें राग-द्वेषादि विकारोंको उत्पत्ति नहीं ावादेज्ज कुलिङ्गो मरेज्ज तं जोगमासेज्ज । होने देना 'अहिंसा' है और उन विकारोंकी आत्मामें उत्पत्ति णहि तस्स तरिणमित्तो बंधो सुहमोवि देसिदो समये । होना 'हिंसा' है । दूसरे शब्दों में इसे इस रूपमें कहा जा सकता
-तत्त्वार्थवृत्तौ पूज्यपादेन उद्धृतः है कि आत्मामें जब राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान-माया और अर्थात्-जो मनुष्य देखभालकर सावधानोसे मार्ग पर लोभादि विकासेंकी उत्पत्ति होती है तब ज्ञानादि रूप आत्म- चल रहा है उसके पैर उठाकर रखनेपर यदि कोई जन्तु स्वभावका घात हो जाता है इसीका नाम भाव हिंसा है अकस्मात् पैरके नीचे आ जाय और दब कर मर जाय तो और इसी भाव हिंसासे-आत्म परिणामोंकी विकृतिसे- उस मनुष्यको उस जीवके मारनेका थोड़ा सा भी पाप नहीं जो अपने अथवा दूसरोंके द्रव्यप्राणका घात हो जाता है उसे लगता है। द्रव्यहिंसा कहते हैं।
जो मनुष्य प्रमादी है-प्रयत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करता हिंसा दो प्रकारसे की जाती है-कषाय और प्रमादसे। है-उसके द्वारा किसी प्राणीकी हिंसा भी नहीं हुई है तो भी
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