Book Title: Anekant 1954 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 30
________________ ६४ ] या जानसे मारना ही इसका विषय है, इसीलिये इसे संकल्पी - हिंसा कहते हैं । गृहस्थ अवस्थामें रहकर आरम्भजा हिंसाका त्याग करना शक्य है । इसीलिये जैन ग्रन्थोंमें इस हिंसा त्यागका श्रामतौरपर विधान नहीं किया है । परन्तु यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेकी ओर संकेत श्रवश्य किया है जो कि श्रावश्यक है; क्योंकि गृहस्थीमें ऐसी कोई क्रिया नहीं होती जिसमें हिसा न होती हो । अतः गृहस्थ सर्वथा हिंसाका त्यागी नहीं हो सकता । इसके सिवाय, धर्म-देश- जाति और अपनी तथा अपने श्रात्मीय जनोंकी रक्षा करनेमें जो विरोधी हिंसा होती है उसका भी वह त्यागी नहीं हो सकता । जिस मनुष्य का सांसारिक पदार्थोंसे मोह घट गया है और जिसकी श्रात्मशक्ति भी बहुत कुछ विकास प्राप्त कर चुकी है वह मनुष्य उभय प्रकारके परिग्रह का त्याग कर जैनी दीक्षा धारण करता है और तब वह पूर्ण अहिंसाके पालन करनेमें समर्थ होता है । और इस तरहसे ज्यों-ज्यों आत्मशक्तिका प्राबल्य एवं उसका विकास होता जाता है त्यों-त्यों हिंसाकी पूर्णता भी होती जाती है। और जब श्रात्माकी * हिसा द्वधा प्रोक्ताऽऽरंभानारं भजत्वतोदक्षै । गृहवासतो निवृत्त द्वेधाऽपि त्रायते ताँ च ।। अनेकान्त [ वर्ष १३ पूर्णशक्तियों का विकास होजाता है, तब श्रात्मा पूर्ण श्रहिंसक कहलाने लगता है । अस्तु, भारतीय धर्मो में अहिंसा धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। इसकी पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाला पुरुष परमब्रह्म परमात्मा कहलाता है । इसीलिये श्राचार्य समन्तभद्रने परब्रह्म कहा है । अतः हमारा कर्तव्य है कि हम जैन शासनके अहिंसातत्त्वको अच्छी तरहसे समझें और उस पर अमल करें । साथ ही, उसके प्रचार में अपनी सर्वशक्तियोंको लगादें, जिससे जनता हिंसाके रहस्यको सम और धार्मिक अन्धविश्वाससे होनेवाली घोर हिंसाका - राक्षसी कृत्यका — परित्यागकर अहिंसाकी शरण में आकर निर्भयता से अपनी श्रात्मशक्तियों का विकास करनेमें समर्थ हो सकें। Jain Education International गृहवाससेचनरतो मन्दकषायाप्रवर्तितारम्भः । आरम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षतु नियमात् ॥ श्रावकाचारे, श्रमितगतिः, ६, ६, ७ * हिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं, न सा तत्रारम्भोस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ॥ ततस्तत्सिद्ध्यर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं भावानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ॥ ११६ स्वयंभूस्तोत्रे, समन्तभद्रः । समाधितन्त्र और इष्टोपदेश वीर सेवामन्दिर से प्रकाशित जिस 'समाधितन्त्र' ग्रन्थके लिये जनता अर्से से लालायित थी वह ग्रन्थ इष्टोपदेशके साथ इसी सितम्बर महीने में प्रकाशित हो चुका है। आचार्य पूज्यपादकी ये दोनों ही आध्यात्मिक कृतियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । दोनों ग्रन्थ संस्कृत टीकाओं और पं० परमानन्दजी शास्त्रीके हिन्दी अनुवाद तथा मुख्तार जुगलकिशोरजीकी खोजपूर्ण प्रस्तावना के साथ प्रकाशित हो चुका है । अध्यात्म प्रेमियों और स्वाध्याम प्रेमियोंके लिये यह ग्रन्थ पठनीय है । ३५० पेजकी सजिन्द प्रतिका मूल्य ३) रुपया है । 1 जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों को लिए हुये है । ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों पर से नोट कर संशोधनके साथ प्रकाशित की गई हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण प्रस्तावना से अलंकृत है, जिसमें १०४ विद्वानों, श्राचार्यों और भट्टारकों तथा उनकी प्रकाशित रचनाओं का परिचय दिया गया है जो रिसर्च स्कालरों और इति-संशोधकोंके लिये बहुत उपयोगी है | मूल्य ५) रुपया है । मैनेजर वीर सेवा - मन्दिर, १ दरियागज, दिल्ली । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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