Book Title: Anekant 1954 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 21
________________ किरण ३ लोकोपवादका वह कलङ्क जो जबर्दस्ती उसके शिर मदा गया था वह सदाके लिये दूर हो गया और सीताने फिर संसारके इन भोग विलासोंको हेय समझकर, रामचन्द्रकी श्रभ्यर्थना और पुत्रादिकके मोहजालको उसी समय छोड़कर पृथ्वीमती श्रार्यिका निकट अर्थका व्रत ले लिये और अपने केशोंको भी दुखदायी समझकर उनका भी लोच कर डाला २ । कठिन तपश्चर्या द्वारा उस स्त्री पर्यायका भी विनाशकर स्वर्गलोक में प्रतीन्द्र पद पाप्त किया । भारतीय श्रमण परम्परा में केवल भगवान् महावीरने नारीको सबसे पहले अपने संघमें दीक्षितकर आत्म-साधनाका अधिकार दिया हो, यही नहीं; किन्तु जैनधर्मके अन्य २३ तीर्थंकरोंने भी अपने-अपने संघमें ऐसाही किया है; जिससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्रमणसंस्कृतिने पुरुषोंकी भांतिही स्त्रियोंके धार्मिक अधिकारोंकी रक्षा की —— उनके श्रादर्शको भी कायम रहने दिया, इतना ही नहीं किन्तु उनके नैतिक जीवन स्तरको भी ऊँचा उठानेका प्रयत्न किया है । भारतमें गान्धी - युगमें गान्धीजीके प्रयत्नसे नारीके अधिकारोंकी रक्षा हुई है उन्होंने जो मार्ग दिखाया उससे नारी जीवनमें उत्साह की एक लहर गई है, और नारियाँ अपने उत्तरदायित्वको भीम गी । फिर भी वैदिक संस्कृतिमें धर्म सेवनका अधिकार नहीं मिला । नारियोंके कुछ कार्यो का दिग्दर्शन भारतीय इतिहासको देखनेसे इस बात का पता चलता है कि पूर्वकालीन नारी कितनी विदुषी, धर्मात्मा, और श्रमण संस्कृति में नारी ' मनसिवचसि काये जागरे स्वप्नमार्गे, मम यदि पतिभावो राघवादन्यपु ंसि । तदिह दह शरीरं पावके मामकीनं, स्वकृत विकृत नीतं देव साक्षी त्वमेव ॥” २ - इत्युक्क्त्वाऽभिनवाशोकपल्लवोपमपाणिनः । मूर्द्धाजान-स्वमुद्धृत्य पद्मायाऽर्पयदस्पृहा ॥६७॥ इन्द्रनीलच तिच्छायान्- सुकुमारन्मनोहरान् । केशान- वीच्य ययौ मोहं रामोऽयप्तश्चभूतले ॥७७॥ यावदाश्वासनं तस्य प्रारब्धं चंदनादिना । पृथ्वी मत्यार्यया तावदीक्षिता जनकात्मजा ॥७८॥ ततो दिव्यानुभावेन सा विघ्न परिवर्जिता । संवृत्ता श्रमणा साध्वी वस्त्रमात्रपरिग्रहा ॥७६॥ Jain Education International [=x कर्तव्य परायणा होती थी । वह श्राजकलकी नारीके समान बला या कायर नहीं होती थी, किन्तु निर्भय, वीरांगना और अपने सतीत्वके संरक्षण में सावधान होती थी जिनके अनेक उद्धरण ग्रन्थोंमें उपलब्ध होते हैं । यह सभी जानते हैं किनारीमें सेवा करनेकी अपूर्व क्षमता होती है । पतिव्रता केवल पतिके सुख-दुखमें ही शामिल नहीं रहती है, किन्तु वह विवेक और धैर्य से कार्य करना भी जानती है। पुराणमें ऐसे कितने ही उदाहरण मिलते हैं जिनमें स्त्रीने पतिको सेवा करते हुए, उसके कार्य में और राज्यके संरक्षण में तथा युद्धमें सहायता की है अवसर आने पर शत्रुके दांत खट्ट े किये हैंx | पतिके वियोग में अपने राज्यकार्यकी संभाल यत्नके साथ की है। इससे नारीकी कर्तव्यनिष्ठाका भी बोध होता है। नारी जहाँ कर्तव्य निष्ठ रही है। वहां वह धर्मनिष्ठा भी रही है। धर्मकर्म और व्रतानुष्ठानमें नारी कभी पीछे नहीं रही है। अनेक शिलालेखोंमें भारतीय जैन-नारियों द्वारा बनवाये जाने वाले अनेक विशाल गगन चुम्बी मंदिरोंके निर्माण और उनकी पूजादिके लिये स्वयं दान दिये और दिलवावाए थे । अनेक गुफाओंका भी निर्माण कराया था, जिनके कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं : - पद्मचरित पृ० १०५ १ - कलिङ्गाधिपति राजा खारवेलकी पट्टरानीने कुमारी पर्वत पर एक गुफा बनवाई थी, जिस पर आज भी निम्न लेख प्रति है और जो रानी गुफाके नामसे उल्लेखित की जाती है। : ( १ ) 'अरहंत पसादान (म्) कालिंगा (न) म् समणानम् लेणं कारितं राजिनो ल (1) लाक (स) (२) हथिस हंस - पपोतम धुना कलिंग - च (खा) र वेल (३) आग महीपी या का लेणं ।” Xचन्द्रगिरि पर्वतके शिलालेख नं० ६१ (१३९) में, जो 'वीरगल' के नामसे प्रसिद्ध है उसमें गङ्गनरेश रक्कसमणिके 'वीर योद्धा' 'वद्वेग' ( विद्याधर ) और उसकी पत्नी सावियत्वेका परिचय दिया हुआ है, जो अपने पतिके साथ 'वायूर' के युद्धमें गई थी और वहां शत्रु से लड़ते हुए वीरगतिको प्राप्त हुई थी । लेख ऊपर जो चित्र उत्कीर्ण हैं उसमें वह घोड़े पर सवार है और हाथमें तलवार लिये हुए हाथी पर सवार हुए किसी वीर पुरुषका सामना कर रही है । सावयव्वे रूपवती और धर्मनिष्ठ जिनेन्द्र भक्तिमें तत्पर थी । लेखमें उसे रेवती, सीता और अरुन्धतीके सद्दश बतलाया. है गया 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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