Book Title: Anekant 1954 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 7
________________ किरण १ ] मद्ररास और मयिलापुरका जैन पुरातत्त्व [३७ वध कर “सारी कुरुम्बभूमि पर अधिकार कर उसका नाम वह प्राचीन समझी जाती थी। दूसरा मन्दिर वैष्णव था, जो 'टोन्डमण्डलम्' रख दिया। प्राचीन नहीं था और तीसरा शैव मन्दिर था उसे 'आडोन्डई' इस कथानकका बहुभाग 'तिरुमूलैवयल्पटिकम्' नामक चोलनृप द्वारा निर्मित कहा जाता था। पुज्हलूर मैं भी गत शैव ग्रन्थसे लिया गया है। टेलर साहबके अभिमतसे मई मासमें गया था। वहाँ अब भी एक प्राचीन विशाल (सं. ग्रं.३, पृ. ४५२) इस कथाका सारांश यह है कि हिंदुओंने दिगम्बर जैन मन्दिर है जिसमें मूलनायक प्रथम तीर्थकर कोलीरुन नदीके दक्षिणकी ओरके देश में तो उपनिवेश अति आदिनाथकी एक बहुत बड़ी पद्मासन प्रस्तर-मूर्ति है जो प्राचीनकालमें स्थापित कर लिया था और उपयुक युद्धके बड़ी मनोज्ञ है। मंदिरके चारों ओरका क्षेत्र बड़ा ही चित्तासमयसे मद्रासके चतुर्दिकवर्ती देशमें उन्होंने पदार्पण किया। कर्षक और प्राकृतिक सौन्दर्यको प्रदर्शित करता है। दिगम्बर राजनैतिकके साथ-साथ धर्मान्धता भी इस आक्रमणका कारण जैनोंमें यह रिवाज है, खासकर दक्षिणमें, कि प्रत्येक थी क्योंकि जैनधर्मके प्राधान्यको चूर्ण करना था। शैवमतका मन्दिरको किसी जैन दिगम्बर ब्राह्मण पुजारीके आधीन कर प्रभुत्व हो जाना ही इस युद्धका मुख्य परिणाम हुआ। दिया जाता है जो वहां दैनिक पूजा, आरती किया करता है यद्यपि लिङ्गायत मतमें अनेक कुरुम्बोंको परिणत कर दिया तथा उसकी देखभाल करता रहता है और मन्दिरका चढाबा गया, तो भी कुरुम्बोंसे जैनधर्म विहीन न हो सका। तथा उसके आधीन सम्पत्तिसे आयका किंचित् भाग उसे चोल राजाओंका अब तक जितना इतिहास प्रगट हो पारिश्रमिकके रूपमें प्राप्त होता रहता है। ऐसे मन्दिरोंके चुका है उसमें 'श्राडोन्डई' नामके किसी भी नृपतिका नाम आस-पास जहां श्रावक नहीं रहे वहांके मन्दिरोंके पुजारी नहीं मिलता है। हां, कुलोत्तुज चोल राजाका इतिहास प्राप्त स्वयं सर्वेसर्वा बनकर उसकी सम्पत्तिको हड़प रहे हैं ऐसे है, उनका समय है सन् १०७० से १२०। इसी प्रकार कई क्षेत्र मैंने देखे हैं। जिन मन्दिरोंकी बड़ी-बड़ी जमीदारी करिकाल चोलराजाका भी थोड़ा इतिहास अवश्य प्राप्त है. थी उन्हें ये हड़प चुके हैं और दक्षिणका दिगंबर जैन समाज उनका समय पंचम शताब्दीसे पूर्वका है किन्तु यह युद्ध ध्यान नहीं दे रहा है, यह दुःख की बात है । इसी पुज्हलूर उनके समय नहीं हुआ था। मैं तो इस युद्धको १२ वीं (पुरल) दिगम्बर मन्दिरके पुजारीने भी ऐसा ही किया है। शताब्दीके बादका मानता हूँ। इसका अनुसंधान मैं कर उस प्राचीन दिगम्बर मन्दिरकी मूलनायक ऋषभदेवकी रहा हूँ। मूर्तिपर चक्षु लगा दिये गए हैं। हमारे श्वेताम्बर भाई पुरल (पुरुलूर) में और इसके निकटवर्ती क्षेत्रमें अब दिगम्बर मन्दिरोंमें पूजा-पाठ करें यह बहुत ही सराहनीय है क्या-क्या बचा हुआ है इसका अनुसंधान करनेके लिये सन् और हम उनका स्वागत करते हैं; किन्तु यह कदापि उचित १८८७ के लगभग प्रापर्ट साहब भी (स.प्र२) वहाँ स्वयं गये नहीं कहा जा सकता है कि वे किसी भी दिगम्बरमूर्ति पर थे। उन्होंने लिखा है (पृ० २४८)-यह प्राचीन नगर मद्रास आभूषण और चचु लगावें। यह चक्षु और श्राभूषण नगरसे उत्तर-पश्चिम पाठ मील पर है और 'रेडहिल्स' नामक लगानेकी वृथा स्वयं श्वेताम्बरों में भी प्राचीन नहीं है। यह वृहत् जलाशय (जहां से मद्रासको अब पेयजल दिया जाता श्रृंगारकी प्रथा तो पढ़ौसी हिन्दुओंकी नकल है। बौद्धोंपर है) के पूर्वकी ओर अवस्थित है । इस क्षेत्र (Red Hills) इनका प्रभाव नहीं पड़ा, इसीलिये उनकी मूर्तियोंमें विकार के पल्ली नामक स्थानमें पुज्हलूर (पुरल) का प्राचीन दुर्ग था नहीं आया । समस्त परिग्रहत्यागी, निर्ग्रन्थ, वीतराग, उस स्थानको अब भी लोग दिखाते हैं और वहां उसकी बनवासी महात्माको यदि आभूषणसे शृंगारित कर दिया प्राचीरके कई भग्नावशेष विद्यमान हैं। मद्रासपर चढ़ाई जाय तो किसीको भी अच्छा नहीं लगेगा और उसके सच्चे करनेके समय हैदरअली यहीं ठहरा था । पुरलको 'वाण जीवनको भी वह कलंकित करेगा। क्या महात्मा गांधीजी पुलल' भी कहते हैं और उसके निकट 'माधवरम्' नामका की मूर्तिको श्राज कोई आभूषणोंसे सजानेका साहस करेंगे ? एकबोटा गाँव भी है। दक्षिण-पूर्वकी ओर एक मीलपर फिर तीर्थकर तो निग्रंथ थे। ऊपर जिस पुज्हलूर (पुरल) वर्तमान पुललग्राम है जिसमें आपर्ट साहबने तीन मन्दिर जिलेका वर्णन किया गया है उसी पुज्हलूर जिलेके अन्तर्गत देखे थे, "एक आदि तीर्थकरकी जैनवसति-जो उस समय मद्रास अवस्थित था। यद्यपि जीर्णावस्थामें थी, तो भी वहाँ पूजा होती थी और कुछ वर्ष हुए श्रीसीताराम पायर इन्जीनियरके नं०३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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