________________
किरमा २]
सिंह-श्वान-समीक्षा
एक राजा दूसरे राजासे ससम्मान और गौरवके साथ करता है, उनके उत्कर्षको देखकर कुढ़ता है और मिलता है, ठीक उसी प्रकार दो सिंह परस्पर मिलते अवसर आने पर उन्हें गिराने और अपमानित करनेसे हैं। सिंहमें अपने सजातीय बन्धुओंके साथ वात्सल्य नहीं चूकता। भाव भरा रहता है, जब कि कुत्ता ठीक इसके विपरीत है। उसमें स्वजाति वात्सल्यका नामोनिशान भी नहीं इन गुणों के प्रकाश में यदि सम्यक्त्वीके चारित्रहोता। स्वजाति वात्सल्यका गण सर्वगणोंमें सिरमौर मोहके उदयसे अविरति-जनित अनेकों अवगुण पाये है और उसके होनेसे सिंह वास्तवमें सिंह संज्ञाको जाते हैं, तो भी वे उक्त चारों अनुपम गुण-रत्नोंके सार्थक करता है और उसके न होनेसे कुत्ता 'कुत्ता' प्रकाशमें नगण्यसे हो जाते हैं । इसके विपरीत मिथ्याहो बना रहता है।
त्वीमें दया, क्षमा, विनय, नम्रता आदि अनेक गुणोंके __ इस प्रकार हम देखते हैं कि सिंहमें आत्मवि- पाये जाने पर भी आत्मविश्वासकी कमी से वह सदा श्वास, विवेक पुरुषार्थशीलता और स्वजातिवत्सलता
सशंक बना रहता है, विवेकके अभावसे उस पर ये चार अनुपम जाज्वल्यमान गुण-रत्न पाये जाते हैं,
अज्ञानका पर्दा पड़ा रहता है और इसलिए वह निस्तेज जिनके प्रकाशमें उसके अन्य सहस्रों अवगुण नगण्य
एवं हतप्रभ होकर किंकर्तव्यविमूढ़ बना रहता है, पुरुया तिरोभूत हो जाते हैं । इसके विपरीत कुत्तेमें आत्म
षार्थकी कमीके कारण वह सदा टुकड़ोंका गुलाम और विश्वासकी कमी, विवेकका अभाव, टुकड़ोंका गुलामी
दूसरोंका दास बना रहता है तथा स्वजाति-विद्वेषके
कारण वह घर-घर में दुतकारा जाता है। पना और स्वजाति-विद्वेष ये चार महा अवगुण पाये
हमें श्वानवृत्ति छोड़कर अपने दैनिक व्यवहार में जानेसे उसके अनेकों गुण तिरोभूत हो जाते हैं । सिंह
सिंहवृत्ति स्वीकार करना चाहिए । में उक्त चार गुणोंके कारण ओज, तेज और शौर्यका अक्षय भण्डार पाया जाता है और ये ही उसकी
शंका-समाधान सबसे बड़ी विशेषताएं हैं, जिनक कारण सिंहको " उपमा दिये जाने पर मनुष्य हर्ष और गर्वका अनुभव शंका - जबकि सिंह और श्वान दोनों मांसाहार। करते हैं । कुत्तेमें हजारों गुण भले ही हों, पर उसमें और शिकारी ज नवर हैं, तब फिर इन दोनों में उपयुक्त उक्त चार महान गुणोंकी कमी और उनके अभावसे आकाश-पाताल जैसे महान अन्तर उत्पन्न होनेका क्या प्रगट होने वाले चार महान अवगुणों के पाये जानेसे कारण है ? कोई भी कुत्तेकी उपमाको पसन्द नहीं करता । इस
__समाधान-इसके दो कारण हैं :- एक अन्तरंग प्रकार यह फलितार्थ निकलता है कि सिंह और श्वानमें और दूसरा बहिरंग । अन्तरंग कारण तो सिह और आकाश-पाताल जैसा महान् अन्तर है।
श्वान नामक पंचेन्द्रिय जातिनामकर्मका उदय है और ठीक यही अन्तर सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टिमें बहिरंग कारण बाहिरी संगति, मनुष्योंका सम्पर्क एवं है । सम्यक्त्वी सिंहके समान है और मिथ्यात्वी कुत्तेके तदनुकूल अन्य वातावरण है। अन्तरंग कारण कर्मोसमान । सम्यक्त्वीमें सिंहके उपयुक्त चारों गुण पाये दयके समान होने पर भी जिन्हें मनुष्यके द्वारा पालें जाते हैं। आत्मविश्वाससे यह सदा निःशंक और जाने आदि बाह्य कारणोंका योग नहीं मिलता, वे निर्भयरहता है । विवेक प्रगट होनेसे वह अमूढदृष्टि जंगली कुत्ते आज भी भारो खूख्वार और भयानक या यथाथदर्शी बन जाता है। पुरुषार्थके बलसे बह देखे जाते हैं जिन्हें लोग 'शुना कुत्ता' कहते हैं। आत्मनिर्भर रहता है और साजातीय-वात्सल्यसे तो 'शुना शब्द 'श्वान' का ही अपभ्रंश रूप है जो आज वह लवालव भरा ही रहता है। सम्यक्त्वी स्वभावतः भी अपने इस मूल नामके द्वारा स्वकीय असली रूपअपने सजातीय या साधर्मीजनोंसे 'गो वत्स' सम प्रेम खूख्वारताका परिचय दे रहा है। मनुष्योंने इसे पालकरता है। पर मिथ्यात्वी सदा सजातियोंसे जला ही पुचकारके उसे उसकी स्वाभाविक शक्तिसे वेभान करा
Jain Education International
For Personal Private Use Only
www.jainelibrary.org