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ग्रन्थोंकी खोजके लिये ६००) रु० के छह पुरस्कार
जो कोई भी सज्जन निम्नलिखित जैनग्रंथों में से, सूचीके अतिरिक, जो अनेक ग्रन्थसूचियों पर से बनी है, जिनका उल्लेख तो मिलता है परन्तु वे अभी तक उपलब्ध 'जैन ग्रन्थावली' में भी पाया जाता है, जिसमें वह सूरतके नहीं हो रहे हैं, किसी भी ग्रन्थकी, किसी भी जैन-अजैन उन सेठ भगवानदास कल्याणदासजीकी प्राइवेट रिपोर्टसे शास्त्रभण्डार अथवा लायब्ररीसे खोज लगा कर सर्व प्रथम लिया गया है जो कि पिटर्सन साहबकी नौकरीमें थे। सूचना नीचे लिखे पते पर देनेकी कृपा करेंगे और फिर बाद- 'नियमसार' की पद्मप्रभ-मलधारि देव-कृत-टीकामें 'तथा को ग्रन्थकी शुद्ध कापी भी देवनागरी लिपिमें भेजेंगे या चोक्त तत्त्वानुशासने इस वाक्यके साथ नीचे लिखा पद्य खुद कापीका प्रबन्ध न कर सकें तो मूल ग्रन्थ ही कापी उद्धृत किया गया है, जो रामसेनके उक्त तत्त्वानुशासनमें अथवा फोटोके लिये वीरसेवामन्दिरको भिजवाएँगे तो उन्हें, नहीं है, न ग्रन्थसन्दर्भकी दृष्टिसे उसका हो सकता है तथा ग्रंथका ठीक निश्चय हो जाने पर, पुरस्कारकी वह रकम भेंट विषय-वर्णनकी दृष्टिसे बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है, और इसलिये की जायगी जो प्रत्येक ग्रन्थके लिये १००) रु० की निर्धारित सम्भवतः स्वामीजीके तत्त्वानुशासनका ही जान पड़ता है:की गई है। ग्रन्थ सब संस्कृत-भाषाके हैं।
उत्सज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम् । उन सूचनाके साथमें ग्रन्थके मंगलाचरण तथा प्रशस्ति स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ॥ (अन्तभाग) की और एक सन्धिकी भी (यदि संधियों हो तो) ३) सन्मति-सूत्रकी दो टीका-सिद्धसेनाचार्यका सन्मतिनकल आनी चाहिये । यदि सूचना तार-द्वारा दी जाय तो सूत्र नामका एक प्राकृत ग्रन्थ है, जिस पर दो खास संस्कृत उक्त नकल उसके बाद ही डाक रजिस्टरीसे भेज देनी चाहिये। टीकाएँ अभी तक अनुपलब्ध हैं-एक दिगम्बराचार्य सन्मति ऐसी स्थितिमें तार मिलनेका समय ही सूचना-प्राप्तिका समय या सुमतिदेवकी रचना है और दूसरी श्वेताम्बराचार्य मल्लसमभा जायगा । सूचना की अन्तिम अवधि फाल्गुन शुक्ल वादी को । दिगम्बराचार्यकी टीकाका उल्लेख वादिराजसूरिके पूर्णिमा संवत् २०११ तक है।
पार्श्वनाथचरितमें और श्वेताम्बराचार्यकी टीकाका उल्लेख
हरिभद्रकी अनेकान्तजयपताका तथा यशोविजयके अष्टकिसी ग्रंथकी श्लोकसंख्या यदि २०० से ऊपर हो तो
सहली-टिप्पणमें निम्न प्रकार . पाया जाता है :कुल कापीकी उजरत पुरस्कारको रकमसे अलग दी जाएगी
'नमः सन्मतये तस्मै भवकूप-निपातिनाम् । और वह दस रुपए हज़ारके हिसाबसे होगी। मूल ग्रन्थ प्रतिके
सन्मतिर्विवृता येन सुखधाम-प्रवेशिनी ।। हिन्दी लिपिमें देखनेको आजानेसे कापी भेजनेकी जिम्मेदारी
(पार्श्वनाथचरित) समाप्त हो जायगी। तब कापीका प्रबन्ध वीरसेवामंदिर-द्वारा
'उक्तं च व दिमुख्येन श्रीमल्लवादिना सम्मतौ।' हो जायगा।
(अनेकान्त जय०) खोजके ग्रन्थोंका परिचय
'इहार्थे कोटिशा भंगा निर्दिष्टा मल्लवादिना । (१) जीव-सिद्धि-यह ग्रंथ स्वामी समन्तभद्रका रचा मूल-सम्मति-टीकायामिदं दिङ्मात्रदर्शनम् ।। हुआ है और उनके युक्त्यनुशासनकी जोड़का - ग्रन्थ है । श्री
(अष्टसहस्री-टि.) जिनसेनाचार्यने हरिवंशपुराणके निम्न पद्यमें इसे भी भगवान्
र्थसूत्र-टीका (तत्त्वार्थालंकार) शिवकोटिमहावीरके वचनों जैसा महत्वशाली बतलाया है
आचार्यकृत-श्रवणबेल्ग.लके शिलालेख नं० १०५ (२५४) जीवसिद्धि-विधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् । के निम्न पद्यसे इस टीकाका पता चलता है और इसमें वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़म्भते ।।
प्रयुक्त हुश्रा 'एतत् ' शब्द इस बातको सूचित करता है कि (२) तत्त्वानुशासन-यह ग्रन्थ भी स्वामि-समन्तभद्र- यह पद्य उक्न टीका परसे ही उद्धृत किया गया है, जिसे कृत है और रामसेनकृत उस तत्त्वानुशासनसे भिन्न है जो समन्तभद्रके शिष्य शिवकोटिकी कृति बतलाया गया हैनागसेनके नामसे माणिकचन्दग्रन्थमालामें छपा है। इसका तस्यैव शिष्यः शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टिः । उल्लेख 'दिगम्बर जैनग्रन्थ-कर्ता और उनके ग्रन्थ' नामकी संसार-वाराकर-पोतमेतत् तत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार ।।
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