Book Title: Anekant 1954 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 24
________________ अनेकान्त [ वर्ष १३ जन मिलना बन्द होगा कि वह तुरन्त दुम दबा कर सदा रोटीके टुकड़ों के लिये दूसरोंके पीछे पूछ हिलाता वापिस लौट आयेगा । पर सिंह किसी दूसरेके भरोसे हुआ फिरा करता है और टुकड़ोंका गुलाम बना रहता शत्रु पर आक्रमण नहीं करता। आक्रमण करते हुए है । जब तक आप उसे टुकड़े डालते रहेंगे, आपकी वह कभी किसीकी सहायताके लिए पीछे नहीं झांकता गुलामी करेगा और जब आपने टुकड़े डालना बन्द और शत्रसे हार कर तथा दुम दबा कर वापिस लौटना किये और आपके शत्रुने टुकड़े डालना प्रारम्भ किये तो वह जानता ही नहीं। वह 'कार्य वा साधयामि, देह तभीसे वह उसकी गुलामी शुरू कर देगा। वह 'गंगा वा पातयामि' का महामन्त्र जन्मसे ही पढा हा होता गये गङ्गादास और जमुना गये जमुनादास की है । अपने इस अदम्य आत्मविश्वासके बल पर ही लोकोक्तिको चरितार्थ करता है। पर सिंह कभी भी वह बड़े से बड़े जानवरों पर भी विजय पाता है और रोटीका गुलाम नहीं है। वह पेट भरने के लिये न जंगलका राजा बनता है। दूसरोंके पीछे पूछ हिलाता फिरता है और न कुत्तेके ___ सिंह और श्वानमें दूसरा बड़ा अन्तर विवेकका समान दूसरोंकी जूठी हड़ियाँ ही चाटा करता है । है। कुत्ते में विवेककी कमी स्पष्ट है। यदि कहीं किसी सिंह प्रति दिन अपनी रोटी अपने पुरुषार्थसे स्वयं अपरिचित गलीसे आप निकलें, कोई कुत्ता आपको उत्पन्न करता है। सिंहके विषयमें यह प्रसिद्धि है कि काटने दौड़े और आप अपनी रक्षाके लिए उसे लाठी वह कभी भी दूसरोंके मारे हुए शिकारका हाथ नहीं मारे तो वह लाठीको पकड़ कर चबानेकी कोशिश लगाता । स्वतंत्र सिंहकी तो जाने दीजिये, पर कटघरों करेगा । उस बेवकूफको यह विवेक नहीं है कि यह में बन्द सिंहोंके सामने भी जब उनका भोजन लाठी मुझे मारने वाली नहीं है। मारने वाला तो यह लाया जाता है तब वे भोजन-दाताको ओर न तो सामने खड़ा हुआ पुरुष है, फिर मैं इस लकड़ीको क्यों दीनता-पूर्ण नेत्रों से ही देखते हैं, न कुत्ते के समान चबाऊँ । दूसरा अविवेकका उदाहरण लीजिये-कुत्ते- पूछ हिलाते हैं और न जमीन पर पड़ कर अपना को यदि कहीं हड्डीका टुकड़ा पड़ा हुआ मिल जाय तो उदर दिखाते हुए गिड़गिड़ाते ही हैं। प्रत्युत इसके यह उसे उठा कर चबायेगा और हड़ीकी तीखी नोकों एक बार गम्भीर गर्जना कर मानो वे अपना विरोध से निकले हुए अपने ही मुखके खूनका स्वाद लेकर प्रकट करते हुए यह दिखाते हैं कि अरे मानव ? क्या फूला नहीं समायेगा। वह समझता है कि यह खन तू मुझे अब भी टुकड़ों के गुलाम बनाने का व्यर्थ इस हडमिस निकल रहा है। पर सिंहका स्वभाव ठीक प्रयास कर अपने को दावार होने का अहकार करता इससे विपरीत होता है। वह कभी हड्डी नहीं है ? कहन का है ? कहने का अर्थ यह कि पराधीन और कठघरे में चबाता और न आक्रमण करने वालेकी लाठी, बन्द सिंह भी रोटी का गुलाम नहीं है, पर स्वतन्त्र बन्दूक या भाला आदिको पकड़ कर ही उसे और आजाद रहने वाला भी कुत्ता सदा टुकड़ोंका चबाने की कोशिश करता है, क्योंकि उसे यह विवेक गुलाम हैं। कुत्तेको अपने पुरुषाथका भान नहीं, पर है कि ये लाठी, बन्दूक आदि जड़ पदार्थ मेरा स्वतः सिंह अपने पुरुषार्थसे खूब परिचित है और उसके कुछ बिगाड़ नहीं कर सकते; ये लाठी आदि मुझे मारने द्वारा ही अपनी रोटी स्वयं उपार्जित करता है। वाले नहीं, बल्कि इनका उपयोग करने वाला यह मनुष्य इस उपयक्त अन्तरके अतिरिक्त सिंह और श्वान ही मुझे मारने वाला है। अपने इस विवेकके कारण में एक और महान् अन्तर है और वह यह कि कुत्ता वह लाठी आदिको पकड़ने या पकड़ कर उन्हें चबाने- 'जाति देख घर्राऊ' स्वभावी है। अपने जाति वालोंको की चेष्टा नहीं करता ; प्रत्युत उनके चलाने वाले पर देखकर यह भौंकता, गुर्राता और काटनेको दौड़ता है। आक्रमण कर उसका काम तमाम कर देता है। इससे अधिक नीचताकी और पराकाष्ठा क्या हो सिंह और श्वानमें एक और बड़ा अन्तर पुरुषार्थ- सकती है ? पर सिंह कभी भी दूसरे सिंहको देख का है । कुत्ते में पुरुषार्थकी कमी होती है, अतएव वह कर गुर्राता या काटनेको नहीं दौड़ता है, बल्कि जैसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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