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अनेकान्त
[वर्ष १३
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टिप्पणके पूरे पत्र ११५ हैं। टिप्पणकारने आरम्भमें गूढ़ अर्थको समझानेका काफी प्रयत्न किया है। संस्कृत भाषाअपने कोई निजी मंगलाचरणसे टिप्पण प्रारम्भ नहीं किया है के अतिरिक्त उसने बीच २ में हिन्दीके पद्योंका भी प्रयोग किन्तु मूलग्रन्थके पदमें ही टिप्पण प्रारम्भ कर दिया है। किया है और उदाहरण देकर विषयको समझानेका प्रयत्न टिप्पणका प्रारम्भिक भाग इस प्रकार है:--
किया है । टीकाका प्रारम्भ निम्न प्रकार है :विनेयानां भव्यानां । अवाग्भागे-दक्षिणभागे। मोक्षमार्गस्य भेत्तारं भेत्तारं कर्मभूभृतां । प्रणयिनः संतः । वृणुतेस्म भजतिस्म । शक्ति सिद्धि । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये । त्रयोपेतः प्रभूत्साह मंत्र शक्तयस्तिस्त्रः।
अस्यार्थ:-विशिष्ठ इष्ट देवता नमस्कार पूर्वं तत्वार्थप्रभूशक्ति भवेदाद्या मंत्रशक्तिद्वितीयका। शास्त्रं करोमि । मोक्षमार्गस्य नेतारं को विशेशः यः परमेश्वरः तृतीयोत्साह शक्तिश्चेत्याहु शक्तित्रयं बुधाः ॥
अरहंतदेवः मोक्षमार्ग-अनन्तचतुष्टय सौख्यः शाश्वतासौख्यः टिप्पणका अन्तिम भाग
अव्यय विनाशरहितः ईदृग्विधं मोक्षमार्गस्य निश्चय व्यवहारस्य इत्यार्षे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टि महा
निरवशेषनिराकृतमलकलंकस्य शरीस्यात्मनो स्वाभाविकतान् पुराणसंग्रहे श्रीवर्धमानतीर्थकरपुराणं परिसमाप्त
ज्ञानादिगुणमव्यावाधसुखमत्यंतिकमवस्थान्तरं मोक्षः तस्य
मार्ग उपायः तस्य नेत्तारं उपदेशकं .......... ... ...। षट्सप्ततितम पर्ख ॥७६।।
मंगलाचरणके पश्चात् ग्रन्थके प्रथम सूत्रकी भी टीका यह प्रति संवत् १५६६ कार्तिक सुदी ५ सोमवारके दिन ही की लिखी हुई है । इसकी प्रतिलिपि खण्डेलवाल वंशोत्पन्न
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनंपापल्या गोत्रवाले संगही नेमा द्वारा करवायी गयी थी।
तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची । भो भगवन् ! लिपिकार श्री हुल्लू के पुत्र पं० रतनू थे। .
सम्यग्दर्शनं किम् उक्तं च ? () तत्त्वार्थसूत्र टोका:
मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट। तत्त्वार्थसूत्रका जैनोंमें सबसे अधिक प्रचार है। जैन
अष्टौ शंकादयो दोषा दृग्दोषाः पंचविंशति ।। समाजमें इसका उतना ही आदरणीय स्थान है जितना ईसाई पंचविंशति मलरहितं तत्त्वर्थानां भावना रुचिः सम्यग्दसमाजमें बाइबिन का, हिन्दू समाजमें गीताका तथा मुसलिम र्शनं भवति । समाजमें कुरान का है। यह उमास्वात्रिकी अमूल्य भेंट है। टीकाके बीच २ में टीकाकारने संस्कृत एवं कहीं २ सर्व प्रिय होनेके कारण इस पर अनेक टीकायें उपलब्ध हैं हिन्दीके पद्योंका उद्धरण दिया है इससे विषय और भी जिनरत्नकोश' में इनकी संख्या ३६ बतलायी गई हैं लेकिन स्पष्ट होगया है तथा यह एक नवीन शैली है जिसे टीकावास्तवमें इससे भी अधिक इस पर टीकायें मिलती हैं ! कारने अपनायी है। अभी तक. संस्कृत टीकाओं में हिन्दी तत्त्वार्थसूत्रकी टीका हिन्दी, संस्कृत, गुजराती, तामिल, पद्योंके उद्धरण देखने में नहीं आये। टीकाकारके समयमें तेलगू कन्नड श्रादि सभी भाषाओंमें उपलब्ध होती हैं। हिन्दीकी व्यापकता एवं लोकप्रियताकी भी यह द्योतक है। इसी तत्त्वार्थ सूत्र पर एक टीका अभी मुझे बड़े मन्दिर टीका में आये हुए कुछ उद्धरणोंको देखियेः(जयपुर) के शास्त्र भण्डरमें उपलब्ध हुई है जिसका परिचय
जो जेहा नर सेवियउ सो ते ही फलपत्ति । पाठकोंकी सेवामें उपस्थित किया जा रहा है :
जलहिं पमाणे पुण्डइ विहिणालइ निप्पजन्ति । तत्त्वार्थसूत्रकी यह टीका १७८ पत्रोंमें समाप्त होती है। भवाब्धौ भव्यसार्थस्य निर्वाणद्वीपायनः । टीकाकार कौन है तथा उन्होंने इसे कब समाप्त किया था। चारित्रयान पात्रस्य कर्णधारो हि दर्शनः ।
आदि तथ्योंके लिये यह प्रति मौन है। यह प्रति संवत् हस्ते चिंतामणिं यस्य गृहे यस्य सुरद्रुमः । १९५६ पासोज सुदी ११ मंगलवारकी है। साह श्री खीवसी
कामधेनु धनं यस्य तस्य का प्रार्थना परा ।। अग्रवालने इसकी प्रतिलिपि करवायी थी एवं रणथम्भोर
x x x x क्रमशः दुर्गमें पूर्णमल कायस्थ माथुरने इसकी प्रतिलिपि की थी।
- (श्री दि. जैन अ.क्षेत्र श्री महावीर जी टीका अत्यधिक सरल है एवं टीकाकार ने तत्त्वार्थसूत्रके
के अनुसन्धान विभागकी ओर से)
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