Book Title: Anekant 1954 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 18
________________ ४६] अनेकान्त [वर्ष १३ विजहणा निरूप्यते संघमें कलह उत्पन्न होता है, उत्तर दिशामें हो तो व्याधि एवं कालगदस्स दु सरीरमंतो बहिज्ज वाहिं वा। उत्पन्न होती है, पूर्व दिशामें हो तो परस्परमें खींचातानी होती विज्जावच्चकरात सयं विकिंचंति जदणाए ॥१६६६॥ है और संघमें भेद पड़ जाता है। ईशान दिशामें हो तो - समणाणं ठिदिकप्पो वासावासे तहेव उडुबंधे । किसी अन्य साधुका मरण होता है। (भग० श्रारा० गा० पडिलिहिदव्वा णियमाणिसीहिया सव्वसाधहिं १६.७॥ १९७१-१९७३) एगंता सालोगा णादिविकिट्ठा ण चावि आसपणा। इस विवेचनसे वसतिका और निषीधिकाका भेद बिलवित्थिरणा विद्धत्ता णिसीहिया दूरमागाढा ॥१६६८॥ कुल स्पष्ट हो जाता है । ऊपर उद्धत गाथा नं० १९७० में अभिसुभा असुसिराअघसा उज्जोवा बहुसमायअसिणिद्धा यह साफ शब्दोंमें कहा गया है कि वसतिकासे दक्षिण, नैऋत्य णिज्जंतुगा अहरिदा आविला य तहाअणाबाधा ॥१६६६॥ और पश्चिम दिशामें निषीधिका प्रशस्त मानी गई है । यदि जा अवर-दक्खिणाए व दक्खिणाए व अध व अवराए। निषाधिका वसतिकाका ही पर्यायवाची नाम होता, सो ऐसा वसधीदो वणिज्जदि णिसीधिया सा पसत्थत्ति॥१६७०॥ वर्णन क्यों किया जाता । ___अब समाधिसे भरे हुए साधुके शरीरको कहां परित्याग प्राकृत 'णिसीहिया' का अपभ्रंश ही 'निसीहिया' हुआ करे, इसका वर्णन करते हैं इस प्रकार समाधिके साथ काल और वह कालान्तरमें नसिया होकर अाजकल नशियांके रूपमें गत हुए साधुके शरीरको वैयावृत्य करने वाले साधु नगरसे व्यवहृत होने लगा। बाहिर स्वयं ही यतनाके साथ प्रतिष्ठापन करें। साधुओंको इसके अतिरिक्त आज कल लोग जिन मन्दिरमें प्रवेश चाहिए कि वर्षावासके तथा वर्षाऋतुके प्रारम्भमें निषीधिका- करते हुए 'ओं जय जय जय, निस्सही निस्सही नस्सही, का नियमसे प्रतिलेखन करलें, यही श्रमणोंका स्थितिकल्प है। नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोस्तु' बोलते हैं । यहां बोले जाने वाले वह निषाधिका कैसी भूमिमें हो, इसका वर्णन करते हुए 'निस्सही' पदसे क्या अभिप्रेत था और आज हम लोगोंने कहा गया है- वह एकान्त स्थानमें हो, प्रकाश युक्त हो, उसे किस अर्थमें ले रखा है, यह भी एक विचारणीय बात वसतिकासे न बहुत दूर हो, न बहुत पास हो, विस्तीर्ण हो, है। कुछ लोग इसका यह अर्थ करते हैं कि 'यदि कोई देवाविध्वस्त या खण्डित न हो, दूर तक जिसकी भूमि दृढ़ या दिक भगवानके दर्शन-पूजनादि कर रहा हो, तो वह दूर या ठोस हो, दीमक-चींटी आदिसे रहित हो, छिद्र रहित हो, एक ओर हो जाय ।' पर दर्शनके लिए मन्दिर में प्रवेश करते घिसी हुई या नीची-ऊँची न हो, सम-स्थल हो, उद्योतवती हुए तीन वार निस्सही बोलकर 'नमोस्तु' बोलनेका यह हो, स्निग्ध या चिकनी फिसलने वाली भूमि न हो निर्जन्तुक अभिप्राय नहीं रहा है, किन्तु जैसा कि 'निषिद्धिका दंडकका हो. हरितकायसे रहित हो, विलोंसे रहित हो, गीली या उद्धरण देते हुए ऊपर बतलाया जा चुका है, वह अर्थ यहांदल-दल युक्र न हो, और मनुष्य-तियंचादिकी बाधासे रहित अभिप्रेत है। ऊपर अनेक अर्थों में यह बताया जा चुका है हो। वह निषीधिका वसतिकासे नैऋत्य, दक्षिण या पश्चिम कि निसीहि या यानिषीधिका का अर्थ जिन, जिन-बिम्ब, सिद्ध दिशामें हो तो प्रशस्त मानी गई है। और सिद्ध-बिम्ब भी होता है। तदनुसार दर्शन करने वाला इससे आगे भगवती आराधनाकारने विभिन्न दिशाओंमें तीन वार 'निस्सही'-जो कि 'णिसिहीए' का अपभ्रंश रूप होने वाली निषीधिकाओंके शुभाशुभ फलका वर्णन इस है-को बोलकर उसे तीन बार नमस्कार करता है। यथार्थप्रकार किया है: में हमें मन्दिरमें प्रवेश करते समय 'णमो णिसीहियाए' या यदि वसतिकासे निषीधिका नैऋत्य दिशामें हो, इसका संस्कृत रूप 'निषीधिकायै नमोऽस्तु, अथवा 'णिसीतो साधुसंघमें शान्ति और समाधि रहती है, दक्षिण हियाए णमोत्थु पाठ बोलना चाहिए। दिशामें हो तो संघको आहार सुलभतासे मिलता है, यहां यह शंका की जा सकती है कि फिर यह अर्थ कैसे पश्चिम दिशामें हो, तो संघका विहार सुखसे होता है प्रचलित हुआ-कि यदि कोई देवादिक दर्शन-पूजन कर और उसे ज्ञान-सयंमके उपकरणोंका लाभ होता है । रहा हो तो वह दूर हो जाय ! मेरी समझमें इसका कारण यदि निषीधिका आग्नेय कोणमें हो, तो संघमें स्पर्धा निःसही या निस्सही जैसे अशुद्धपदके मूल रूपको ठीक तौरसे अर्थात् तू तू मैं-मैं होती है, वायव्य दिशामें हो तो न समझ सकनेके कारण 'निर उपसर्ग पूर्वक स्' गमनार्थक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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