Book Title: Anekant 1954 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 19
________________ किरण . २ ] धातुका श्राज्ञाके मध्यम पुरुष एक वचनका बिगड़ा रूप मान कर लोगोंने वैसी कल्पना कर डाली है । अथवा दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि साधुको किसी नवीन स्थानमें प्रवेश करने या वहांसे जानेके समय निसीहिया और आसिया करनेका विधान है। उसकी नकल करके लोगोंने मन्दिर प्रवेश के समय बोले जाने वाले 'निसीहिया' पदका' भी वही अर्थ लगा लिया है। साधुयोंके १० प्रकारके समाचारोंमें निसीहिया और आसिया नामके दो समाचार हैं और उनका वर्णन मूलाचार में इस प्रकार किया गया है कंदर- पुलि-गुहादिसु पवेसकाले खिसिद्धियं कुज्जा । तेर्हितो गिग्गमणे तहासिया होदि कायव्या ॥१३४ || - ( समा० अधि० ) अर्थात् — गिरि-कंदरा, नदी आदिके पुलिन मध्यवर्ती जलरहित स्थान और गुफा आदिमें प्रवेश करते हुए निषिद्धिका समाचारको करे और वहांसे निकलते या जाते समय आशिका समाचारको करे । इन दोनों समाचारोंका अर्थ टीकाकार ० वसुनन्दिने इस प्रकार किया है : टीका - पविसंतेय प्रविशति च प्रवेशकाले णिसिही निषेधिका तत्रस्थानमभ्युपगम्य स्थानकरणं, सम्यग्दर्शनादिषु स्थिरभावो वा, णिग्गमणे - निर्गमनकाले आसया देव-गृहस्थादीन् परिपृच्छ्य यानं, पापक्रियादिभ्यो मनोनिवर्तनं वा । " निसीहिया या नशियां • अर्थात् - साधु जिस स्थानमें प्रवेश करें, उस स्थानके स्वामीसे श्राज्ञा लेकर प्रवेश करें। यदि उस स्थानका स्वामी कोई मनुष्य है तो उससे पूछें और यदि मनुष्य नहीं है तो उस स्थानके अधिष्ठाता देवताको सम्बोधन कर उससे पूछें इसीका नाम निसीहिक। समाचार है। इसी प्रकार उस स्थानसे जाते समय भी उसके मालिक मनुष्य या क्षेत्रपालको पूछकर और उसका स्थान उसे संभलवा करके जावें । यह उनका श्रासिकासमाचार है अथवा करके इन दोनों पदोंका टीकाकारने एक दूसरा भी अर्थ किया है। वह यह कि विव Jain Education International * साधुओं का अपने गुरुओंके साथ तथा अन्य साधुनों के साथ जो पारस्परिक शिष्टाचारका व्यवहार होता है, उसे समाचार कहते हैं । [ ४७ क्षित स्थानमें प्रवेश करके सम्यग्दर्शनादिमें स्थिर होनेका नाम 'निसीहिया' और पाप क्रियाओंसे मनके निवर्तनका नाम 'सिया' है । श्राचारसारके कर्त्ता श्र० वीरनन्दिने उक्त दोनों समाचारोंका इस प्रकार वर्णन किया है जीवानां व्यन्तरादीनां बाधायै यन्निषेधनम् । अस्माभिः स्थीयते युष्मद्दिष्टैघवेति निषिद्धिकां ॥११॥ प्रवासावसरे कन्दरावासा देर्निषिद्धिका । तस्मान्निर्गने कार्या स्यादाशीर्वैरहारिणी ॥ १२॥ ( आचारसार द्वि० ० ) श्रर्थात् - व्यन्तरादिक जीवोंकी बाधा दूर करनेके लिए जो निषेधात्मक वचन कहे जाते हैं कि भो क्षेत्रपाल यक्ष, हम लोग तुम्हारी प्रज्ञासे यहां निवास करते हैं, तुम लोग रुष्ट मत होना, इत्यादि व्यवहारको निषिद्धिका समाचार कहते हैं और वहाँ से जाते समय उन्हें वैर दूर करने वाला श्राशीर्वाद देना यह आशिका समाचार है 1 ऐसा मालूम होता है कि लोगोंने साधुओंके लिए विधान किये गये समाचारोंका अनुसरण किया और “व्यन्तरादीनां बाधायै यन्निषेधनम्” पदका अथ मन्दिरप्रवेशके समय लगा लिया कि यदि कोई व्यन्तरादिक देव दर्शनादिक कर रहा हो तो वह दूर हो जाय और हमें बाधा न दे । पर वास्तवमें 'निस्सही' पद बोलने का अर्थ 'निषीधिका अर्थात् जिनदेवका स्मरण कराने वाले स्थान या उनके प्रतिबिम्बके लिए नमस्कार अभिप्र ेत रहा है । उपसंहार मूलमें 'निसीहिया पद मृत साधु-शरीरके परिष्ठापनजो स्वस्तिक या चबूतरा छतरी आदि बनाये जाने लगे, स्थानके लिए प्रयुक्त किया जाता था। पीछे उस स्थानपर उनके लिए भी उसका प्रयोग किया जाने लगा । मध्य युगमें साधु के समाधिमरण करनेके लिए जो खास स्थान बनाये कालान्तर में वहां जो उस साधुकी चरण पादुका या मूर्ति जाते थे उन्हें भी निसिधि या निसीहिया कहा जाता था । आदि बनाई जाने लगी उसके लिए भी 'निसीहिया' शब्द प्रयुक्त होने लगा । श्राजकल उसीका अपभ्रंश या विकृत रूप निशि, निसिधि और नशियां आदिके रूपमें दृष्टिगोचर होता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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