Book Title: Anekant 1953 10 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 8
________________ १५४.] यह बतलाते हैं कि आप्तोपज्ञ वही होता है जो इन विशे षणोंसे विशिष्ट होता है. जो शास्त्र इन विशेषणोंसे विशिष्ट नहीं हैं वे श्राप्तोपज्ञ अथवा श्रागम कहे जानेके योग्य नहीं हैं। उदाहरण के लिये शास्त्र का कोई कथन यदि प्रत्यक्षादिके विरुद्ध जाता है तो समझना चाहिये कि वह श्राप्तोपज्ञ ( निर्दोष एवं सर्वज्ञदेवके द्वारा उपदिष्ट ) नहीं हैं और इसलिये श्रागम के रूपमें मान्य किये जानेके योग्य नहीं । ( तपस्वि-लक्षण ) विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपोरत्न (क्त) स्तपस्वी स प्रशस्यते । १० अनेकान्त [ किरण ५ की वह सारी दृष्टि सामने आ जाती है जो उसे श्रद्धाका विषय बनाती है । इन विशेषणोंका क्रम भी महत्वपूर्ण है । सबसे पहले तपस्वी के लिये विषय- तृष्णा की वशवर्तिता से रहित होना परमावश्यक है। जो इन्द्रिय-विषयोंकी तृष्णा के जाल फँसे रहते हैं वे निरारम्भी नहीं हो पाते, जो धरम्भोंसे मुख न मोड़ कर उनमें सदा संलग्न रहते हैं वे अपरिग्रही नहीं बन पाते, और जो अपरिग्रही न बनकर सदा परिग्रहोंकी चिन्ता एवं ममता से घिरे रहते हैं वे रत्न कहलाने योग्य उत्तम ज्ञान ध्यान एवं तपके स्वामी नहीं बन सकते अथवा उनकी साधनामे लीन नहीं हो सकते, और इसतरह वे सत्श्रद्धा के पात्र ही नहीं रहते - उन पर विश्वास करके धर्मका कोई भी अनुष्ठान समीचीनरीतिसे अथवा भले प्रकार नहीं किया जा सकता । इन गुणोंसे विहीन जो तपस्वी कहलाते हैं वे पत्थरकीं उस नौकाके समान हैं जो आप डूबती हैं और साथ में श्राश्रितोंको भी ले डूबती है । 'जा विषयाशा की अधीनता से रहित है— इन्द्रियोंके विषयोंमें भासक्त नहीं और न श्राशा तृष्णा के चक्कर में ही पड़ा हुआ है अथवा विषयोंकी वांछा तकके वशवर्ती नहीं है— निरारम्भ है— कृषि वाणिज्यादिरूप सावद्यकर्मके ब्यापार में प्रवृत्त नहीं होता-, अपरिग्रही, है - धन-धान्यादि वाह्य परिग्रह नहीं रखता और न मिथ्यादर्शन, राग-द्वेष, मोह तथा काम-क्रोधादिरूप अन्तरंग परिग्रहसे अभिभूत ही होता है - और ज्ञानरत्न-ध्यानरत्न तथा तपरत्नका धारक है अथवा ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन रहता हैसम्यक ज्ञानका आराधन, प्रशस्त ध्यानका साधन और अनशनादि समीचीन तपोंका अनुष्ठान बड़े अनुरागके साथ करता है - वह ( परमार्थ ) तपस्वी प्रशंसनीय होता है। व्याख्या - यहां तपस्वीके 'विषयाशावशातीत' आदि जो चार विशेषण दिये गये हैं वे बड़े ही महत्वको लिये हुए हैं और उनसे सम्यग्दर्शनके विषयभूत परमार्थ तपस्वी Jain Education International ध्यान यद्यपि अन्तरंग तपका ही एक भेद है फिर भी उसे अलग से जो यहां ग्रहण किया गया है वह उसकी प्रधानताको बतलाने के लिये है। इसी तरह स्वाध्याय नामके अन्तरंग तप में ज्ञानका समावेश हो जाता है, उसकी भी प्रधानताको बतलानेके लिये उसका अलग से निर्देश किया गया है । इन दोनोंकी अच्छी साधनाके बिना कोई सत्साधु श्रमण या परमार्थ तपस्वी बनता ही नहीं-सारी तपस्याका चरम लक्ष्य प्रशस्त ध्यान और ज्ञानकी साधना ही होता है। For Personal & Private Use Only - युगवीर www.jainelibrary.orgPage Navigation
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