Book Title: Anekant 1953 10
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 10
________________ १५६ ] कोई उल्लेख नहीं मिलता । किन्तु यह प्रति बहुत प्राचीन है इसलिये इसका टीकाकार भी कोई प्राचीन आचार्य एवं विद्वान् होना चाहिए ऐसा अनुमान किया जा सकता है टीकाकारने पउमचरिय में से अपभ्रंशके कठिन शब्दोंको लेकर उनकी संस्कृत भाषामें टीका 'अथवा पर्यायवाची शब्द लिख दिये हैं। टीका विशेष विस्तृत नहीं है। उम चरियकी १० सन्धियोंकी टीका केवल ५६ पत्रोंमें ही समाप्त कर दी गई है। प्रति बहुत प्राचीन है तथा वह अत्यधिक जीर्ण हो चुकी है इसलिए इसकी प्रतिलिपि होना आवश्यक है । इसके बीच कितने हो पत्र फट गये हैं तथा शेष पत्र भी उसी अवस्था में होते जा रहे हैं। यह प्रति शास्त्र भण्डारकी बोरियों में बंधे हुये तथा बेकार समझे जाने वाले स्फुट त्रुटित एवं जीर्ण-शीर्ण पत्रोंमें बिखरी हुई थी तथा इन पत्रोंको देखने के समय यह प्रति मिली थी। यह टीका पउमचरियके सम्पादन के समय बहुत उपयोगी सिद्ध होगी ऐसा मेरा अनुमान है। टिप्पणकारने टीका प्रारम्भ करनेके पूर्व निम्न प्रकार मंगलाचरण किया है स्वयंभु महावीरं प्रणिपत्य जगद्गुरू । रामायणस्य वच्यामि टिप्पणं मतिशक्तितः ॥ इस संस्कृत टिप्पणका एक उदाहरण देखिये - तृतीय संधिका प्रथम कडवक अनेकान्त [ किरण ५ पावा पर्वते । वरसत्तउ उत्तमसंघ । मेहरउ मेघनादनाम । इति रामायणे नवति संधिः समाप्तः । माह चरिउ (कवि दामोदर) गयसंतो- गतश्रमो अथवा गते ज्ञाने खांतमनो यस्य स गत खांतः । महु मधूकः । माहत्री प्रति मुक्तकलता । कुडंगेहिं केशरैः । श्रसत्थो पिप्पलः । खजूरि-पिंडखजूरी। मालूर । aver | सिर विल्व । भूय विभीतकः । अवर हिमि जाई हिअपर पुष्पजाति । वणवर्णियहिं वनस्त्रियः । मोरङ पिच्छ छत्रं ॥ 1 १ ॥ अन्तिम सन्धि- जए जगति । मेहलियए भार्यया । गिरणासिय सिय लक्ष्मी निर्नाशितः । दुइमुणि तिनामा मुनि विहालउ समूहस्थानः । घण मेघसिंहः । हरि मांडूक | महच्छुह महत् सुधा | दंडसट्ठियतणु क्रोशत्रय - शरीर प्रमाणं । हरि खिसे भोगभूमि सुरपुरिहि हो संति इन्द्र भविष्यति । यामें इन्द्ररथांभोजरथ नामनौ । सुमणु देवः पावमहोदय Jain Education International ( २ ) यह ग्रन्थ अपभ्रंश भाषामें रचा गया है इसके कर्ता महाकवि दामोदर हैं। यह ग्रंथ प्राप्ति भी जयपुर के बड़े मन्दिरजीके शास्त्रभंडार में उपलब्ध हुई है। इसकी रचना महामुनि कमल भद्रके सम्मुख एवं पंडित रामचंद्र के आशीर्वाद से समाप्त हुई थी ऐसा ग्रन्थ प्रतिक पुष्पिका वाक्यसे स्पष्ट है । प्रति अपूर्ण है तथा जीर्ण अवस्थामें है । रचनाकालके विषय में इससे कोई सहायता नहीं मिलती। यद्यपि यह ग्रंथ कमसे कम ४-५ सधयों में विभक्त होगा लेकिन उपलब्ध प्रतिके कडव कोंकी संख्या संधिके अनुसार न चलकर एक साथ चलती है । ४४ वें पत्र पर ११७ कडधक हैं। इस प्रतिमें तीन संधियां प्राप्त हैं चूंकि ग्रंथ प्रति अपूर्ण है इसलिए ग्रंथमें अन्य संधियाँ भी होनी चाहिए। प्रथम संधि में मुख्यतः नेमिनाथ स्वामीकी जन्मोत्पत्ति, द्वितीय संधि में जरासंध और कृष्णका संग्राम तथा तृतीय संधिमें भगवान् नेमिनाथके विवाहका वर्णन दिया हुआ है। इस प्रकार ग्रंथ में दो संधियाँ और होंगी जिनमें नेमिनाथ स्वामीके वैराग्य एवं मोक्ष गमन श्रादिका वर्णन होगा। प्रथम संधिकी समाप्ति पुष्पिका इस प्रकार है - इह रोमियाहचरिय महामुणिकम्बलभद्द पञ्चक्खे महाकइ कणिट्ठ दामोयर विरइए पंडिय रामचंद्र एसिए मल्हसु श्रवगाएड श्रयं णिए जम्मुपत्ति ग्रामा पढमो संधि परिच्छेश्रो सम्मत्तो । ग्रंथप्रतिका शेष भाग अन्वेषणीय है । यह संभवतः पत्र टूट जाने या दीमक श्रादिके द्वारा खण्डित हुआ है । अतः इसकी दूसरी प्रतिके लिये अन्वेषण करनेकी बड़ी जरूरत है । " बारहखड़ी दोहा ( ३ अपभ्रंश भाषा में बारहखड़ीके रूपमें आध्यात्मिक एवं सुभाषित दोहोंकी रचना है । दोहे अच्छे एवं पठनीय जान पढ़ते हैं। इस ग्रंथ कर्त्ता महाचंद कवि । आप कब और कहाँ हुये, इसका रचनामें कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन इतना अवश्य है कि कवि संवत् १५६१ के पूर्ववर्ती हैं क्योंकि बढ़े मन्दिरके शास्त्र भण्डार में उपलब्ध प्रति इसी समयकी है । प्रति पूर्ण है एवं दोहोंकी संख्या ३३५ है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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