Book Title: Anekant 1953 10
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 20
________________ १६६ ] अनेकान्त किरण ५ मन्दिर दो संख्या लिक लगता है द्वारा कर्मशत्रुओंको विनष्ट कर केवलज्ञान द्वारा जगतके इस क्षेत्रकी यात्रासे सातिशय पुण्यका संचय होता है। जीवोंको संसारके दुःखोंसे छूटनेका सरल उपाय बतलाया प्राचीनकाल में अनेक तीर्थ यात्रा संघ इस पर्वत पर था, साथ ही लोकमें दयाकी वह मन्दाकिनी वहाई जिससे अपूर्व उत्साहके साथ पाते और पूजा वंदनाकर लौट अनन्त जीवोंका उद्धार हुआ था, मांसभक्षणकी लोलुपता- जाते थे। भाज यह केवल जैनियोंका ही तीर्थ नहीं रहा के लिये बंदी किये गये उन पशुओंको रिहाई मिली थी है किन्तु हिन्दुओं और मुसलमानोंका भी तीर्थ बना हुआ जो भगवान नेमिनाथके विवाह में सम्मिलित यदुवंशी राजाओं है । हिन्दु लोग पांचवी टोंक पर नेमिनाथके चरणोंको की चुधापूर्ति के लिये एक बाडे में इकट्ठ किये गये थे। इस दत्तात्रयके चरण बतलाकर पूजते हैं और दूसरी तीसरी पर्वत पर सहस्त्रों व्यक्तियोंने तृष्णाके अपरिमित तारोंको टोंक पर उन्होंने अपने तीर्थस्थानकी भी कल्पना की तोड़कर और देहसे भी नेह छोड़कर आत्मसाधना कर हुई है। अतः हिन्दू समाज भी इस क्षेत्रका समादर करता परमात्मपद प्राप्त किया था। अतएव यह निर्वाण भूमि है। मुसलमान भी मदारसा नामक पीरकी कब बतलाकर अत्यन्त पवित्र है। यहांके भूमण्डलके कण कण में साधना इवादत करने आते हैं। की वह पवित्र भावना तपश्चर्या की महत्ता, तथा स्वपर-दया- . जैनियोंके मन्दिर प्रथम टोंक पर ही पाये जाते हैं। का उत्कर्ष सर्वत्र व्याप्त है। भगवान नेमिनाथकी जयके भागेकी टोंकों पर केवल, चरण-चिन्ह ही अंकित हैं। यह नारे असमर्थ वृद्धाओं एवं अन्य दुबैल व्यक्तियाके जोवनम मन्दिर दो भागों में विभाजित हैं दिगम्बर और श्वेताम्बर ! भी उत्साह और धैर्यकी लहर उत्पन्न कर देते हैं। दिगम्बर मन्दिरोंकी संख्या सिर्फ तीन हे और श्वेताम्बरोंके नेमिनाथ भगवानके गणधर वरदत्तकी और अगणित मं दरोंकी संख्या २२ है। मुझे तो ऐसा लगता है कि प्राचीन मनियोंकी यह निर्वाणभूमि रहा है । अतः इसकी महत्ताका काल में इस क्षेत्रपर दिगम्बर श्वेताम्बरका कोई भेद नहीं कथन हम जसे अल्पज्ञोंसे नहीं हो सकता । था, सभी यात्री समान भावसे आते और यात्रा करके चले इसी सौराष्ट्र देशके उक्त गिरिनगरकी 'चन्दगुफा जाते थे। परन्तु १०वीं 9वीं सदीके बादसे साम्प्रदायिक में आजसे दो हजार वर्ष पहले अष्टांग महानिमित्त ज्ञानी व्यामोहकी मात्रा अधिक बढ़ी तभीसे उक्त कल्पना रूढ़ हुई है। इसमें सन्देह नहीं कि उभय समाज के श्रीमानों और प्रवचन वत्सल, महातपस्वी क्षीणकाययोगी अंगपूर्वके एक विद्वानों तथा साधु समय समय पर यात्रा संघ पाते. देशपाठी धरसेनाचार्य ने दक्षिण देशवासी महिमा नगरीके रहे हैं। आज हम वहां गिरिनगरमें विक्रमकी १२वीं १३वीं उत्सवसे श्रागत पुष्पदन्त भूत बलिनामक साधुओंको सिद्धांत शताब्दीके बने हुए श्वेताम्बर मन्दिर देखते हैं किन्तु पुरा. ग्रन्थ पढ़ाया था। तन दिगम्बर मन्दिरोंका कोई अवशेष देखने में नहीं पाता। . इसके सिवाय, विक्रमकी द्वितीय शताब्दीके प्राचार्य वर्तमानमें जो दिगम्बर मन्दिर विद्यमान हैं वे १७ वीं समन्तभद्र स्वामीके स्वयम्भू स्तोत्रके अनुसार उस समय शताब्दीके जान पड़ते हैं, यद्याप ये उसी जगह बने हुए मह पहाड़ भक्तिसे उल्लसितचित्त ऋषियों द्वारा निरन्तर कहे जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि गिरनगरमें दिगम्बर अभिसेवित था और पहाड़की शिखरें विद्याधरोंकी स्त्रियोंसे पुरातन मंदिर न बने हों, क्योंकि पुरातन मन्दिर और समलंकृत थीं। इससे स्पष्ट है कि आजसे १५०० वर्ष चरणवन्दनाके उल्लेख भी उपलब्ध हैं जिनसे स्पष्ट जान पूर्व यह पावन तीर्थभूमि जैन साधुओंके द्वारा अभिवंदनीय तथा तपश्चरण भूमि बनी हुई थी। उसके बाद अब पड़ता है कि गिरिनगर पर दि० मन्दिर विद्यमान थे। कमसे कम १२ वी १३ वीं शताब्दीके मन्दिर तो अवश्यही सकतक यह भूमि बराबर तीर्थभूमिके रूपमें जगतमें मानी बने हुए थे। पर उनका क्या हुआ यह कुछ समझमें नहीं एवं पूजी जाती रही है। अनेक साधु, श्रावक, श्राविकाओं श्राता, हो सकता है कि कुछ पुरातन मन्दिर व मूर्तियां और विद्वानोंके द्वारा समय॑नीय है। इसी कारण जैन समाजमें इस क्षेत्रकी निर्वाणक्षेत्रोंमें गणनाकी गई है। जीर्ण हो गई हों, या उपद्रवादिके कारण विनष्ट कर दी गई हों, कुछ भी हुआ हो. पर उनके अस्तित्वसे इंकार गिरिनगरकी यह गुफा अाजकल 'बाबा प्यारा के नहीं किया जा सकता। परन्तु खेद है कि सम्प्रदायके व्यामठ' के पास वाली जान पड़ती है। मोहसे दिगम्बरोंको अपनी प्राचीन सम्पत्तिसे भी हाथ धोना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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