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अनेकान्त
किरण १
रहेगी कि यह ग्रन्थ शुद्ध अहिंसाधर्मसे परिपूर्ण है और ईश्वरस्तुति नामक प्रथम अध्यायके प्रथम पद्यमें इसलिये यह जैन मस्तिष्ककी उपज होना चाहिए । श्रीयुत् 'श्रादिपकवन' शब्द अाया है जिसका अर्थ होता है 'आदि सुब्रह्मण अय्यर अपने अंग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावनामें भगवान'. जो कि इस युगके प्रथम अरहन्त भगवान लिखते हैं कि 'कुरलकाव्यका मंगलाचरण वाला प्रथम प्रादीश्वर ऋषभदेवका नाम है। दूसरे पद्यमें उनकी सर्वज्ञता अध्याय जैनधर्मसे अधिक मिलता है।' . . का वर्णन कर पूजाके लिए उपदेश दिया गया है। तीसरे
फूल भले ही यह न कहे कि मैं अमुक बृनका हूँ, फिर पद्य में 'मलिमिशै' अर्थात् कमलगामी कहकर उनको भी उसकी सुगन्धि उसके उत्पादक वृक्षको कहे बिना नहीं अरहन्त अवस्थाके एक अतिशयका वर्णन है। चौथे पद्यमें रहती; ठीक इसी प्रकार किसी भी ग्रंथके कर्ताका धर्म हमें उनकी वीतरागताका व्याख्यान कर, पांचवें पद्यमें गुणगान भले ही ज्ञात न हो पर उसके भीतरी विचार उसे धर्म करनेसे पापकर्मोका क्षय कहा गया है, छठे पद्यमें उनसे विशेषका घोषित किये बिना न रहेंगे। लेकिन इन विचारों उपदिष्ट धर्म तथा उसके पालनका उपदेश दिया गया है का पारखी होना चाहिए । यदि अजैन विद्वान् जैनवाह और सातवेंमें उपयुक्त देवकी शरण में प्रानेसे ही मनुष्यको मयके ज्ञाता होते तो उन्हें कुरलको जैनाचार्यकृत मानने में सुख शांति मिल सकती है ऐसा कहा है। जैनधर्म में सिद्ध कभी देरी न लगती । ग्रन्थकर्त्ताने जैन भाव इस काव्यमें परमेष्ठीके श्राठगुण माने गये हैं इसलिए सिद्धस्तुति कलापूर्ण ढंगसे लिखे हैं उनको वे लोग जैनधर्मसे ठीक करते हुए पाठवें पद्य में उनके पाठ गुणोंका निर्देश परिचित न होने के कारण नहीं समझ सके हैं करलकी किया गया है । सारी रचना जैन-मान्यताओंसे परिपूर्ण है। इतना ही नहीं जैनधर्म में पृथ्वी वातवलयसे वेष्टित बतलाई किन्तु उसका निर्माण भी जैनपद्धतिको लिये हुए हैं। इसका गई है कुरलमें भी पच्चीसवें अध्यायके पांचवें पद्यमें कुछ दिग्दर्शन हम यहां कराते हैं
दयाके प्रकरणमें कहा गया है-'क्लेश दयालु पुरुषके .' इसमें किसी वैदिक देवताकी स्तुति न देकर जैनधर्मके लिए नहीं है, भरी पूरी वायु वेष्टित पृथ्वी इस बातकी अनुसार मंगलकामना की गई है । जैनियामें मंगल-कामना साक्षी है। करनेकी एक प्राचीन पद्धति है, जिसका मूल यह सूत्र है कि
सत्यका लक्षण कुरल में वही कहा गया है जा जैनधर्म 'चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं,
को मान्य है-ज्योंको त्यों बात कहना सत्य नहीं है किंतु केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ।" अर्थात् चार हमारे लिये
समीचीन अर्थात् लोकहितकारी बातका कहनाही सत्य है, मंगलमय हैं-अरहन्त सिद्ध, साधु और सर्वज्ञाणीत भले ही वह ज्यों की त्यों न हो - धर्म। देखिए 'ईश्वरस्तुति' नामक प्रथम अध्यायमें प्रथम नहीं किसी भी जीवको, जिससे पीड़ा कार्य।.. पद्यसे लेकर सातवें तक अरहन्त स्तुति है और आठवें में सत्य बचन उसको कहें, पूज्य ऋषीश्वर आर्य ॥१॥ सिद्धस्तुति है । नवमें और दशवें में साधुके विशेष भेद . . वैदिक पद्धतिमें जब वर्णव्यवस्था जन्ममूलक है तब प्राचार्य और उपाध्यायकी स्तुति है।
जैन पद्धतिमें वह गुणमूलक है। कुरल में भी गुणमूलक सम्राट मौर्य चन्द्रगुप्तके समय उत्तर भारतमें १२ वर्णव्यवस्थाका वर्णन है-'साधु प्रकृति-पुरुषोंको ही ब्राह्मण वर्षका एक बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा था, जिसके कारण साधुचर्या कहना चाहिए, कारण वे ही लोग सब प्राणियों पर दया कठिन हो गई थी। अतः श्रतकेवली भगबाहुके नेतृत्व में रखते हैं। अाठ हजार मुनियोंका संघ उत्तर भारतसे दक्षिण भारत वैदिक वर्णव्यवस्थामें कृषि शूद्रका हो कर्म है तब चला गया था। मेघवर्षाके बिना साधुचर्या नहीं रह सकती कुरल अपने कृषि अध्याय में उसे सबसे उत्तम आजीविका यह भाव उस समय सारी जनतामें छाया था, इसलिए बताता है क्योंकि अन्यलोग पराश्रित तथा परपिण्डोपजीवी कुरलके कर्ताने उसी भावसे प्रभावित होकर 'मुनि स्तुति' हैं। जेन शास्त्रानुसार प्रत्येक वर्ण वाला व्यक्ति कृषि कर नामक तृतीय अध्यायके पहले 'मेघ महिमा' नामक द्वितीय सकता है। अध्यायको लिखा है। साधुस्तुतिके पश्चात् चौथे अध्यायमें उनका जीवन सत्य जो, करते कृषि उद्योग । मंगलमय धर्मकी स्तुति की गई ।
और कमाई अन्यकी, खाते बाकी लोग ॥ ..
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