Book Title: Anekant 1953 10
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 27
________________ महत्वपूर्ण प्रवचन (श्री १०५ पूज्य तुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी) साधु कौन है ? जिन्होंने बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग कर दिया वह साधु है । सचमुच में देखा जाय तो शांतिका स्रोत केवल एक निर्मन्थ अवस्थामें ही है। यदि त्यागी वर्ग म हों तो श्राप लोगोंको ठीक राह पर कौन लगावे । कहा भी है : अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवेनमः ॥ समस्त संसारी प्राणी अज्ञानरूपी तिमिर ( अंधकार ) से व्याप्त हैं । ज्ञानरूपी अंजनकी शलाकासे जिन्होंने हमारे नेत्रोंको खोल दिया है ऐसे श्री गुरुवरको नमस्कार है। 1 जो श्रात्माका साधन करता है, स्वरूपमें मग्न हो कर्ममलको जलानेकी चेष्टा करता है वह साधु है । समन्तभद्र स्वामी ने बतलाया कि वही तपस्वी प्रशंसा के योग्य है जो विषयाशासे रहित है, निराम्भी है अपरिग्रही है, और ज्ञान-ध्यान- तप में श्रासक हैं । वह स्व समय और पर समयकी महत्तासे परिचित है । श्राचार्य कुन्दकुन्दने स्वसमय और पर समयका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है : 'जीवो चरित्त दंपण गाडि तं हि ससमयं जाण । • पुग्गलकम्मपदेसट्ठियंच जाण प(समयम् ॥ जो श्रात्मा दर्शन, ज्ञान, तथा चारित्रमें स्थित है वही 'स्व समय' है और जो पुद्गलादि पर पदार्थों में स्थित है उनकों पर समय' कहते हैं । तथा 'शुद्धात्माश्रितः स्वमयो मिथ्यात्व रागादिविभावपरिणामाश्रितः परसमय इति, अर्थात् जो शुद्धात्मा के श्राश्रित है वह स्वसमय है और जो मिथ्यात्व रागादिविभावपरिणामोंके श्राश्रित है उसे ही परसमय कहते हैं । परसमय से हटकर स्वसमय में स्थिर होना चाहिये । परन्तु हम क्या कहें आप लोगोंकी बात । एक साधुके पास एक चूहा था। एक दिन एक बिल्ली आई और वह चूहा डरकर साधु महाराजसे वोला- भागवन् ! 'मार्जाराद् विभेमि' अर्थात् मैं बिल्ली से डरता हूँ । ! Jain Education International तब साधुने आशीर्वाद दिया 'मार्जारो भव' इससे वह चूहा बिलाव हो गया। एक दिन बड़ा कुत्ता आया, वह बिलाव डर गया और साधुसे बोला प्रभो ! 'शुनो बिभेमि' अर्थात् मैं कुत्ते से डरता हूँ । साधु महाराजने श्राशीर्वाद दिया 'श्वा भव' अब वह मार्जार कुत्ता हो गया। एक दिन बनमें महाराजके साथ कुत्ता जा रहा था अचानक मार्ग में व्याघ्र मिल गया । कुत्ता महाराजसे बोला- 'व्याघ्राद् बिभेमि' अर्थात् मैं व्याघ्रसे डरता हूँ। तब महाराजने आशीर्वाद दिया कि 'व्याघ्रो भव' अब वह व्याघ्र हो गया । जब व्याघ्र उस तपोवनके सब हरिण आदि पशुओं को खा चुका तब एक दिन साधु महाराजके ही ऊपर झपटने लगा । साधु महाराजने पुनः श्राशीर्वाद दे दिया कि 'पुनरपि मूषको भव' अर्थात् फिरसे चूहा हो जा । तात्पर्य यह कि हमारे पुण्योदयसे यह मानव पर्याय प्राप्त हो गई, उत्तम कुछ और उत्तम धर्म भी मिल गया अब चाहिये यह था कि कि किसी निर्जन स्थानमें जाकर अपना श्रात्मकल्याण करते; परन्तु यहां कुछ विचार नहीं है । तनिक संसारकी हवा लगी कि फिरसे विषय-वासनाओंकी कीचड़ में जा फंसे । अब तो इन वासनाओंसे मनको मुक्त करके श्रात्महितकी श्रर लगाओ । 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' श्रात्माकी गुण पर्याय को जानो स्याद्वाद द्वारा पदार्थोंके स्वरूपको जान लेना प्रत्येक प्राणिमात्रका कर्तव्य है । संसारका सापेक्षव्यवहार sue देखो, वक्तृत्व व्यवहार भी श्रोतृत्वकी अपेक्षाले होता है । हम वक्ता हैं आप सब श्रोताओं की अपेक्षाले इसी तरह श्रोतापन भी वक्तापने की अपेक्षा व्यवहार में आता है । द्रव्य अनंत धर्मात्मक है । एक पदार्थ स्वसत्ताले अस्ति और परसत्ताकी अपेक्षा नास्ति है। देखा जाय तो उस पदार्थ में श्रस्ति नास्ति दोनों धर्मं उसी समय विद्यमान हैं। "स्वपरोपादानापोहन व्यवस्था मात्रं हि खलु वस्तुनो वस्तुत्वं" वस्तुका वस्तुत्व भी यही है कि स्वरूपका उपा कान और पररूपका अपोहन हो । यह पतित पावन है । पावन व्यवहारं तभी होगा जब कोई पतित हो, पतित ही न हो तब पावन कौन कहलायेगा ? शब्द For Personal & Private Use Only " www.jainelibrary.org

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