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रचनाका नाम योगशास्त्र है। इसमें दो सन्धियाँ है । प्रथम सन्धिमें ६४ कढवक और द्वितीय सम्बि ७२ क वक है इस प्रकार यह काव्य १३६ कडवकमें समाप्त होता है। रचनाकी केवल एक ही प्रति बड़े मन्दिर में मिली है। इसके ६७ पत्र हैं । प्रतिका अन्तिम पत्र जिस पर ग्रंथ प्रशस्ति वाला भाग है जीर्ण होकर फट गया है इससे सबसे बड़ी हानि तो यह हुई कि रचनाकाल वाला अंश भी कहीं फटकर गिर गया है ।
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ग्रन्थ में योगधर्मका वर्णन किया गया है मंगलाचर राके पश्चात् ही कविने योगकी प्रशंसा में बिखा है कि योग ही भव्य जीवको भयोदधिसे पार करनेके लिए एक मात्र सहारा है।
अनेकान्त
[ किरण ५
कविने अपनी तीन अन्य रचनाओंका उल्लेख किया है। ग्रन्थ प्रशस्तिले हमें निम्न बातोंका श न होता है
सह धम्म जोड जगिसारट, जो भध्ययण भवोवहितारड प्राणायाम आदि कियाथांका वर्णन करनेके पश्चात् कविने योगावस्थामें लोकका चिन्तन करनेके लिये कहा है और अपनी इस रचना के ५० से अधिक कडवकों में तीन लोकोंके स्वरूपका वर्णन किया है।
दूसरी सन्धिमें धर्मका वर्णन किया गया है। इसमें षोडशकारणभावना, दस धर्म, चौदह मार्गणा तथा १४ गुणस्थानोंका वर्णन है । ६० वे कडवकसे श्रागे कविने भगवान महावीरके पश्चात् होने वाले केवली श्रुतकेवली श्रादिके नामोंका उल्लेख किया है इसके पश्चात् भद्रबाहु स्वामीका दक्षिण विहार श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति आदि पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है । कुन्दकुन्द — भूतबलि पुष्पदंत, गेमिचन्द्र उमास्वामि, वसुनन्दि, जिनसेन, पद्मनन्दि, शुभचन्द्र आदि प्राचापका नाम उनकी रचनाओंके नामों सहित उल्लेखित किया है । यही नहीं किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायके उत्पन्न होनेके पश्चात् दिगम्बर आचार्योंने किस प्रकार दिन रात परिश्रम करके सिद्धान्त ग्रन्थोंकी रचना की तथा किस प्रकार दिगम्बर समाज चार संघों में विभाजित हुआ आदिका भी कविने उल्लेख किया है। इस प्रकार ६० से आगे कहचक ऐतहासिक दृष्टिसे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।
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(1) श्रुतकीर्ति भ० देवेन्द्रकीर्तिके प्रशिष्य एवं त्रिभुवन कीर्त्तिके शिष्य थे ।
(२) श्रुतकीर्तिके योगशास्त्रकी रचना जेरहट नगर में नेमिनाथ स्वामी मन्दिर में सं० १५ मंगसिर सुदी १ के दिन समाप्त हुई थी ।
शास्त्र भण्डारमें प्राप्त योगशास्त्रकी प्रतिलिपि सं० १५५२ माघ सुदी ५ सोमवारकी लिखी हुई है। लेखक प्रशस्तिके आधार पर यह शंका उत्पन्न होती है कि जब हरिवंश पुराण की रचना संवत् १५५२ माघ कृष्णा ५ एवं परमेष्ठिप्रकाश सारकी संवत् १५५३ श्रावण सुदी १ के दिन समाप्त की थी तो योगशास्त्रकी रचना इससे पूर्व कैसे समाप्त हो सकती है, क्योंकि प्रशस्ति में दोनों रचनाओंका नामोल्लेख मिलता है जिससे यह झकता है कि दोनों रचनायें इस रचनासे पूर्व ही हो गयी थीं। यह प्रश्न अवश्य विचारणीय है । मेरी दृष्टिसे तो यह सम्भव है कि भुतकीतिने योगशास्त्रको प्रारम्भ करनेसे पूर्व हरिवंश पुराण तथा परमेष्ठिप्रकाशसारकी रचना प्रारम्भ कर दी हो और वह योगशास्त्र के समाप्त होनेके पश्चात् समाप्त हुई हो । योगशास्त्र में तो केवल इसी आधार पर दोनों रचनाओंका उल्लेख कर दिया गया हो; क्योंकि ये रचनायें योगशास्त्र के प्रारम्भ होने के पूर्व प्रारम्भ कर दी गई थीं । इस प्रकार अब तक प्राप्त ग्रंथ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि श्रुतिकीर्तिने अपने जीवनकाल में धर्मपरीक्षा, हरिवंशपुराण, परमेष्ठिप्रकाशसार तथा योगशास्त्र इन चारों प्रन्थोंकी रचना की थी ।
1 योगसारके साउसे आगे वे सब कवक जी ऐतिहासिक बातोंसे सम्बन्धित हैं उन्हें शीघ्र प्रकट होना चाहिए ।
योगशास्त्र की ग्रन्थ प्रशस्ति भी महत्वपूर्ण है । इसमें विभागकी ओर से ।
क्रमशः
सम्पादक
छत्री दि० जे० क्षेत्र श्रीमहावीरजीके अनुसंधान
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