Book Title: Anekant 1953 10
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 7
________________ किरण १] समन्तभद्र-वचनामृत [१५३ - - यहां 'अनादिमध्यान्तः' पदमें उसकी दृष्टिके स्पष्ट 'जो आप्तापज्ञ हो-आप्तके द्वारा प्रथमतः ज्ञात होनेकी जरूरत है। सिद्धसेनाचार्य ने अपनी स्वयंभूस्तुति . होकर उपदिष्ट हुआ हो, अनुल्लंध्य हो-उल्लंघनीय नामकी द्वात्रिंशिका में भी प्राप्तके लिये इस विशेषणका अथवा खण्डनीय न होकर ग्राह्य हो, दृष्ट' (प्रत्यक्ष) प्रयोग किया है और अन्यत्र भी शुद्धास्माके लिये इसका और इष्ट (अनुमानादि-विषयक स्वसम्मत सिद्धान्त) प्रयोग पाया जाता है। उक्त टीकाकारने 'प्रवाहापेक्षया' का विरोधक न हो, प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे जिसमें कोई प्राप्तको अनादिमध्यान्त बतलाया है परन्तु प्रवाहकी अपेक्षा- बाधा न पाती हो और न पूर्वापरका विरोध ही पाया जाता से तो और भी कितनी हो वस्तुएं आदि मध्य तथा अन्तसे हो, तत्त्वोपदेशका कर्ता हो-वस्तुके यथार्थ स्वरूपका रहित हैं तब इस विशेषणसे प्राप्त कैसे उपलक्षित होता है प्रतिपादक हो, सबके लिये हितरूप हो और कुमागका यह भले प्रकार स्पष्ट किये जानेके योग्य है। निराकरण करनेवाला हो, उसे शास्त्र-परमार्थ प्रागमवीतराग होते हुए प्राप्त आगमेशी (हितोपदेशी) कहते हैं।' कैसे हो सकता है ? अथवा उसके हितोपदेशका क्या कोई व्याख्या-यहाँ भागम-शास्त्रके छह विशेषण दिये प्रस्म-प्रयोजन होता है इसका स्पष्टीकरण - गये हैं, जिनमें प्राप्तोपज्ञ' विशेषण सर्वोपरि मुख्य हैं अनात्मार्थविना रागेःशास्ता शास्ति सतोहितम। और इस बातको सूचित करता है कि प्रागम प्राप्तपुरुष के द्वारा प्रथमतः ज्ञात होकर उपदिष्ट होता है। प्राप्तपुरुष सर्वज्ञ होनेसे आगम विषयका पूर्ण प्रामाणिक ज्ञान रखता 'शास्ता-आप्त विना रागोंके-मोहके परिणाम- है और राग-द्वेषादि सम्पर्ण दोषोंसे रहित होने के कारण स्वरूप स्नेहादिके वशवर्ती हुए विना अथवा ख्याति-लाभ- उसके द्वारा सत्यता एवं यथार्थताके विरुद्ध कोई प्रसयन पूजादिकी इच्छा नोंके बिना ही-और विना आत्मप्रयो- नहीं बन सकता । साथ ही प्रणयनकी शक्तिसे वह सम्पन अ.के भव्य-जावको हित की शिक्षा देता है। (इसमें होता है। इन्हीं सब बातोंको लेकर धकारिका (१) में आपत्ति या विप्रलिपत्तिकी कोई बात नहीं है) शिल्पीके उसे आगमेशी' कहा गया है-वही अर्थतः प्रागमके कर-र-शको पाकर शब्द करता हुआ मृदंग क्या राम- प्रणयनका अधिकारी होता है। ऐसी स्थितिमें यह प्रथम भायोंकी तथा प्रात्मप्रयोजनकी कुछ अपेक्षा रखता है। विशेषण ही पर्याप्त हो सकता था और इसी दृष्टिको लेकर वहीं रखता।' अन्यत्र 'भागमा ह्याप्तवचनम्' जैसे वाक्योंके द्वारा - व्याख्या-जिस प्रकार मृदंग शिल्पीके हाथके स्पर्श आगमके स्वरूपका नितेश किया भी गया है। तब यहां फ्रॉन रूप बाह्य निमित्तको पाकर शब्द करता है और उस शब्द- विशेषण और साथमें क्यों जोड़े गए हैं? यह एक प्रात के करने में उसका कोई रागभाव नहीं होता और न अपना पैदा होता है । इसके उत्तरनें मैं इस समय सिर्फ इतना कोई निजी प्रयोजन ही होता है-उसकी वह सब प्रवृत्ति ही कहना चाहता हूँ कि लोकमें अनेकोंने अपनेको स्वयं स्वभावतः परोपकारार्थ होती है-उसी प्रकार वीतराग अथवा उनके भक्तीने उन्हें 'श्राप्त' घोषित किया है और आप्तके हित पदेश एवं आगम-प्रणयनका रहस्य है- उनके प्रागमों में परस्पर विरोध पाया जाता है, जबकि उसमें वैसे किसी रागभाव या आत्मप्रयोजनकी आवश्य- सत्यार्थ प्राप्तों अथवा निर्दोष सर्वज्ञोंके आगमोंमें विरोधके कता नहीं, वह 'तीर्थकरप्रकृति' नामकर्मके उदयरूप निमित्त- लिये कोई स्थान नहीं है, वे अन्यथावादी नहीं होते । इसके को पाकर तथा भव्यजीवोंके पुण्योदय एवं प्रश्नानुरोधके सिवा कितने ही शास्त्र व दको सत्यार्थ प्राप्तोंके नाम पर वश स्वतः प्रवृत्त होता है। रचे गये हैं और कितने ही सत्य शास्त्रों में बादको ज्ञाता. प्रागे सम्यग्दर्शनके विषयभूत परमार्थ 'मागम' का ऽज्ञातभावसे मिलावटें भी हुई हैं। ऐसी हालतमें किस पक्षण प्रतिपादन करते हैं शास्त्र अथवा कथनको प्राप्तोपज्ञ समझा जाय और किसको __ (आगम शास्त्र-लक्षण) नहीं, यह समस्या खड़ी होती है। उसी समस्याको हल करने के लिए यहां उत्तरवर्ती पांच विशेषणोंकी योजना हुई आप्तोपज्ञमनुलंध्यमदृष्टेष्ट-विरोधकम् । जान पड़ती है। वे अप्लोपज्ञकी जाँचके साधन हैं अथवा म ॥६ यों कहिए कि प्राप्तोपज्ञ-विषयको स्पष्ट करनेवाले हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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