Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 18
________________ किरण 1 मिथ्यादर्शनसमूहमय, दूसरा अमृतसार और तीसरा संविग्न सुखाभिगम्य है । मिथ्यादर्शनोंका समूह होते हुए भी वह मिथ्यात्वरूप नहीं है, यही उसकी सर्वोपरि विशेषता है और यह विशेषता उसके सापेक्ष नयवाचमें सन्निहित है-सापेक्षनय मिथ्या नहीं होते, निर्पेक्षनय ही मिथ्या होते है; जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है-मिया-समूहो नियास मियंकान्तताऽस्ति न । मिरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽवृत् ॥ श्रीवीका सर्वोदयी बागम श्रीवीरजिनके सर्वधर्मसमन्वयकारक उदार शासनमें सत्-असत् तथा नित्य-क्षणिकादि रूप वे सब नय-धर्म जो निरपेक्षरूपमें अलग-अलग रहकर अतस्त्वका रूप धारण किये हुए स्व-पर- घातक होते है। वे ही सब सापेक्ष (अविरोध) रूपमें मिलकर तत्त्वका रूप धारण किये हुए स्व-परउपकारी बने हुए है" तथा आश्रय पाकर बन जाते है और इसलिये स्वामी समन्तभद्रने युक्त्यनुशासनकी उक्त (६१वी) कारिकामें वीरशासनको जो सर्वधर्मवान् सर्वदुःखप्रणाशक और सर्वोदयतीर्थं बतलाया है वह बिल्कुल ठीक तथा उसकी प्रकृतिके सर्वथा अनुकूल हैं। वीरका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयो ( परस्पर निरपेक्ष नयों) अथवा मिथ्यादर्शनोका अन्त (निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही संसारमें अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओंके कारण होते हैं । अतः जो लोग भगवान महावीरके शासनकाउनके धर्म तीर्थका - सचमुच आश्रय लेते हैं— उसे ठीक तौर पर अथवा पूर्णतया अपनाते हैं— उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दु:ख यथासाध्य मिट जाते है । और वे इस धर्मके प्रसादसे अपना पूर्ण अभ्युदय - उत्कर्ष एवं विकास – तक सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते है। ! महावीरकी बोरसे इस धर्मतीर्थका द्वार सबके लिये खुला हुआ है, जिसकी सूचक अगणित कथाएं जैनशास्त्रोंमें पाई जाती है और जिनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पतित १. य एव नित्य-क्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षा: स्व-पर-प्रणाशिनः । त एव तत्रत्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्व-परोपकारिणः ॥ स्वयमूस्तोत्र १३ से पतित प्राणियोंने भी इस धर्मका आश्रय लेकर अपना उद्धार और कल्याण किया है; उन सब कथाओंोंको छोड़ कर यहां पर जैनग्रन्थोंके सिर्फ कुछ विधि-वाक्योंको ही प्रकट किया जाता है जिससे उन लोगोंका समाधान हो जो इस तीर्थको केवल अपना ही साम्प्रदायिक तीर्थ और एकमात्र अपने ही लिये अवतरित हुआ समझ बैठे हैं तथा दूसरोके लिये इस तीर्थसे लाभ उठाने में अनेक प्रकारसे बाधक बने हुए है। वे वाक्य इस प्रकार है: (१) वीज्ञायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चतुर्थश्च विषोचितः । मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः : (२) उच्चावच-जनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् । नेकस्मिन्पुरुषे तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालयः ॥ यशस्तिलके, सोमदेवसूरिः (३) आवाराऽनवद्यत्वं शुचितपस्कारः शरीरशुद्धिश्च करोति शुत्रानपि देव-द्विजाति-तपस्वि-परिकर्मसु योग्यान् । नीतिवाक्यामृते, सोमदेवसूरिः (४) शूद्रोऽप्युपस्कराऽऽचार-वपुः शुद्धयाऽस्तु तावृश: 1 जात्या होनोपि कालाबिलब्धी ह्यात्माऽस्ति धर्म भाक् ॥ सागारधर्मामृते, आशाधरः (५) एह धम्म जो आयरह बंभणु सुदु वि कोइ । सो साबउ किं साम्रग्रहं अष्णु कि सिरि मणि हो६ । ७६ । सावयधम्म दोहा (देवसेनाचार्य) इन सब बाक्योंका आशय क्रमसे इस प्रकार है: (१) 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीनों वर्ण (आम तौरपर) मुनिदीक्षाके योग्य हैं और चौथा शूद्र वर्णं विधिके द्वारा दीक्षाके योग्य है । ( वास्तवमें) मन, वचन, तथा कायसे किये जानेवाले धर्मका अनुष्ठान करनेके लिये सभी जीव अधिकारी है ।' —यशस्तिलक (२) 'जिनेन्द्रका यह धर्म प्रायः ऊंच और नीच दोनों ही प्रकारके मनुष्योंके आश्रित हैं। एक स्तम्भके आधारपर जैसे मन्दिर-मकान नहीं ठहरता उसी प्रकार ऊंच-नीचमेसे किसी एक ही प्रकारके मनुष्यसमूहके आधारपर धर्म ठहरा हुआ नही है वास्तवमें धर्म धार्मिकोंके नामित होता है, भले ही उनमें ज्ञान, धन, मान-प्रतिष्ठा, कुरु-जाति,

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