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रोर बना और किाल जानता है।
बाबा-ऐश्वर्य, शरीर, बल, उत्पत्तिस्थान और आचार- सम्बन्धन-सम्मानमपि मातङ्गबहन।। बिचाराविकी दृष्टिसे कोई ऊंचा और कोई भीचा हो।' देवा बिदुर्भस्म-गमगारान्तरोजसम् ॥२८॥ -यशस्तिलक
-रलकरण्डके: समन्तभद्रः (३) 'मद्य-मांसादिके त्यागरूप नाचारकी निदोषता, पालन सुरिलो उसमयमेन संभवति । गृह-पात्रादिकी पवित्रता और नित्यस्नानादिके द्वारा शरीर
--स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की शुद्धि, ये तीनों प्रवृत्तियां (विधियां) शूद्रों को भी देव, वीरका यह धर्म इन ब्राह्मणादि जाति-भेदोंको तथा द्विजाति और तपस्वियों (मुनियों) के परिकर्मोक योग्य दूसरे चाण्डालादि विशेषोंको वास्तविक ही नही मानता बनाती है।
-नीतिवाक्यामृत किन्तु वृत्ति अथवा आचार-भेदके बाधारपर कल्पित एवं (४) 'मासन बोर बर्तन बादि उपकरण बिसके शुद्ध परिवर्तनशील जानता है । साथ ही यह स्वीकार करता है हो, मधमांसादिके त्यागसे जिसका बावरण बवित हो और कि अपने योग्य गुणोंकी उत्पत्तिपर जाति उत्पन्न होती है, नित्य स्नानादि द्वारा जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा उनके नाशपर नष्ट हो जाती है और वर्णव्यवस्था गुणकर्मोंशूद्र भी ब्राह्मणादिक वर्णोके समान धर्मका पालन करनेके के आधारपर है न कि जन्मके । यथा:योग्य है। क्योंकि जातिसे हीन आत्मा भी कालादिक लब्धि- "चातुर्वण्र्य यथाऽन्यच्च बाबालादिविशेषणम् । कोपाकर धर्मका अधिकारी होता है।' -सागारधर्मामृत सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतम् ॥११-२०५॥ (५) 'इल (वाबक) धर्मका जो कोई भी आचरण
--पद्यचरिते, रविषेणाचार्य. पालन करता है, चाहे वह ब्राह्मण हो या शूद्र, वह श्रावक है।
__ "माचारमानमवेन जातीनां भेवकत्पनम् । श्रावकके सिरपर और क्या कोई मणि होता है? जिससे नजाति बाह्मणीयाऽस्ति नियता काऽपि तात्विकी॥१७-२४॥ उसकी पहिचान की जा सके।' -सावयधम्मदोहा 'गुणः
मावलमदोता "गुणैः सपबते जातिर्गम बसविपद्यते" ॥-३२॥ नीच-से-नीच कहा जानेवाला मनुष्य भी जो इस धर्म
-धर्मपरीक्षायां, अमितगतिः प्रवर्तककी शरणमें आकर नतमस्तक हो जाता है-प्रसन्नता
"तस्माद्गुणैर्वर्ण-व्यवस्थितिः।" ११-१९८ पूर्वक उसके द्वारा प्रवर्तित धर्मको धारणा करता है-वह
-पद्मचरिते, रविषेणाचार्य:
"क्रियाविशेषादिनिबबन एव ब्राह्मणाविन्यबहार।" इसी लोकमें अति उच्च बन जाता है । इस धर्मकी दृष्टि में कोई जाति गहित नहीं-तिरस्कार किये जानेके योग्य
--प्रमेयकमलमार्तण्डे, प्रभाचन्द्राचार्य. नहीं-सर्वत्र गुणोंकी पूज्यता है, वे ही कल्याणकारी है,
इस धर्ममें यह भी बतलाया गया है कि इन ब्राह्मणादि और इसीसे इस धर्ममें एक चाण्डालको भी व्रतसे युक्त
जातियोका आकृतिआदिके भेदको लिये हुए कोई शाश्वत होनेपर 'बाह्मण' तथा सम्यग्दर्शनसे युक्त होनेपर 'देव' लक्षण भी गो-अश्वादि जातियोंकी तरह मनुष्यशरीरमें (बाराध्य) माना गया है और चाण्डालको किसी साधारण नही पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योमसे ब्राह्मणीधर्म-क्रियाका ही नहीं किन्तु 'उत्तमधर्म' का अधिकारी सचित आदिमें गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक किया है, जैसा कि निम्न आर्य-वाक्योसे प्रकट है:
जाति-भेदके विरुद्ध है। इसी तरह जारजका भी कोई चिह्न
शरीरमें नहीं होता, जिससे उसकी कोई जुदी जाति कल्पित .यो लोके त्वा ततः सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुयंतः।
की जाय; और न महज़ व्यभिचारजात होनेकी बजहसे बालोऽपिता नितंगीतिको नो नीतिपुर कुतः ॥८॥
ही कोई मनुष्य नीच कहा जा सकता है-नीचताका कारण --स्तुतिविवायां, समन्तभद्र.
इस धर्ममें 'अनार्य आचरण' अथवा 'म्लेच्छाचार' माना नजातिमाहता साबि गुणाः कस्याणकारणम् । गया है। इन दोनों बातोंके निर्देशक वो वाक्य इस प्रकार है:स्तरमनपिपायालं तलवाह्मणं पितुः ॥११-२०॥ वर्णाहत्यादिवाना हस्मिनात् ।
नवपरित, रविषणाचार्यः मालपारिए मूदायगर्भाधानप्रवर्तनात् ।।