Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 16
________________ श्रीवासा वाक्यतीर्थ गाचासे प्रकट है भूल सुखाई थी और यह कहते हुए उनका विरोष मिटाना निस्संसपकरो पौरो महावीरो जितमो। बा कि 'तुमने हाथीके एक-एक अंगको ले रखा है, तुम सब राग-बोस-मयादीयो चम्मतित्यस कारो॥ मिल जाबो तो हाथी बन जाय-तुम्हारे अलग-अलग इस गाथामें वीर-जिनको जो निःसंशयकर-संसारी कथनके अनुरूप हाथी कोई चीज नहीं है और इसलिये जो प्राणियोंके सन्देहोंको दूरकर उन्हें सन्देहरहित करनेवाला वस्तुके सब अंगोंपर दृष्टि गलता है-उसे सब बोरसे देखता और उसके सब गुण-धर्मोको पहचानता है-वह महावीर-जान-वचनादिकी सातिशय-शक्तिसे सम्पन्नजिनोत्तम-जितेन्द्रियों तथा कर्मजेताओंमें श्रेष्ठ-और राग-द्वेष वस्तुको पूर्ण तया यचार्य रूपमें देखता है, उसकी दृष्टि भयसे रहित बतलाया है वह उनके धर्मतीर्थ-प्रवर्तक होनेके बनेकान्तदृष्टि है और यह अनेकान्तदृष्टि ही सती अथवा उपयुक्त ही है। बिना ऐसे गुणोंकी सम्पत्तिसे युक्त हुए कोई सम्यग्दृष्टि कहलाती है और यही संसारमें बैर-विरोधको सच्चे धर्मतीर्थका प्रवर्तक हो ही नहीं सकता। यही वजह मिटाकर सुख-शान्तिको स्थापना करने में समर्थ है। इसीसे है कि जो ज्ञानादि-शक्तियोंसे हीन होकर राग-द्वेषादिसे श्री अमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थ सिद्धपुपायमें अनेकान्तको अभिभूत एवं आकुलित रहे हैं उनके द्वारा सर्वथा एकान्त विरोधका मथन करनेवाला कहकर उसे नमस्कार किया शासनों-मिथ्यादर्शनोंका ही प्रणयन हुआ है, जो जागतमे है। और श्रीसियसेनाचार्यने वह बतलाते हुए कि अनेकान्तअनेक भूल-प्रान्तियों एवं दृष्टिविकारोंको जन्म देकर दुःखों के बिना लोकका कोई भी व्यवहार सर्वथा बन नहीं सकता के जालको विस्तृत करने में ही प्रधान कारण बने हैं। सर्वथा उसे लोकका अद्वितीय गुरु कह कर नमस्कार किया है।' एकान्तशासन किस प्रकार दोषोंसे परिपूर्ण है और वे कैसे सिद्धसेनका यह कहना कि 'अनेकान्त' के बिना लोकका दुःखोंके विस्तारमें कारण बने हैं इस विषयकी चर्चाका यहां व्यवहार सर्वथा बन नहीं सकता सोलहों आने सत्य है। अवसर नहीं है। इसके लिये स्वामी समन्तभद्रके देवागम, सर्वथा एकान्तवादियों के सामने भी लोक-व्यहवहारके न बम युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र जैसे प्रन्थों तथा अष्ट - सकनेकी यह समस्या रही है और उसे हल करने तथा लोकसहस्री जैसी टीकाओंको और श्रीसिद्धसेन, अकलंकदेव, व्यवहारको बनाये रखने के लिये उन्हें माया, अविद्या, संवृत्ति विद्यानन्द आदि महान् आचार्योंके तर्कप्रधान ग्रन्थोंको जैसी कुछ दूसरी कल्पनाये करनी पड़ी है अथवा यों कहिये कि देखना चाहिये। अपने सर्वथा एकान्तसिद्धान्तके छप्परको संभालनेके लिये यहा पर मै सिर्फ इतनाही कहना चाहताह किजोतीर्थ- उसके नीचे तरह-तरहकी टेबकियां (थूनियां) लगानी पड़ी शासन--सर्वान्तवान् नहीं-सर्वधर्मोको लिये हुए और उनका है। परन्तु फिर भी वे उसे संभाल नहीं सके और न अपने समन्वय अपने में किये हुए नहीं है--वह सबका उदयकारक सर्वथा-एकान्त सिद्धान्तको किसी दूसरी तरह प्रतिष्ठित करने में अथवा पूर्ण-उदयविधायक हो ही नहीं सकता और न सबके ही समर्थ हो सके है। उदाहरणके लिये अद्वैत एकान्तवादको सब दुःखोंका अन्त करनेवाला ही बन सकता है। क्योकि लीजिये, ब्रह्माद्वैतवादी एक ब्रह्मके सिवाय दूसरे किसी भी वस्तुतस्व अनेकान्तात्मक है-अनेकानेकगुण-धर्मोको लिये पदार्थका अस्तित्व नही मानते-सर्वथा अभेदवादका हुए है। जो लोग उसके किसी एक ही गुण-धर्मपर दृष्टि ही प्रतिपादन करते हैं -उनके सामने जब साक्षात् दिखाई डालकर उसे उसी एक रूपमें देखते और प्रतिपादन करते --- है उनकी दृष्टियां उन जन्मान्ध पुरुषोकी दृष्टियोंके समान १ परमागमस्य बीज निषिद्ध-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । एकांगी है जो हाथीके एक-एक अंगको ही पकड़कर-देखकर सकल-नय-विलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ।। उसी एक-एक अंगके रूपमें ही हाथीका प्रतिपादन करते -पुरुषार्थसिदषुपाय पे, और इस तरह परस्परमें लड़ते, मगड़ते, कलहका बीज २. जेण विणा लोगस्पवि ववहारो सम्बहाण बिडा। गोते और एक दूसरेके दुःखका कारण बने हुए थे। उन्हें तस्स भुक्तकणरुणो णमो बजेगंतवायस ॥६॥ हाचीके सब अंगोंपर दृष्टि रखनेवाले सुनेत्र पुरुषने उनकी

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