Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Concept Publishing Company

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Page 13
________________ प्रस्तावना-द्वितीय संस्करण “आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन" ग्रंथ का प्रथम संस्करण सन् १९६६ में हुआ था । ग्रंथ काफी पठनीय व चर्चनीय रहा। उस पर डी. लिट्० की मानद उपाधि भी मिल चुकी थी । अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी वह निर्धारित हो चुका था; अतः वह संस्करण कुछ ही समय में अप्राप्य हो गया। हमारी संघीय व सामाजिक स्थितियों के परिवर्तन से उसके दूसरे संस्करण के प्रकाशन पर ध्यान नहीं दिया गया। प्रत्युत् द्वितीय खण्ड के प्रकाशन और तृतीय खण्ड के लेखन पर विशेषतः ध्यान दिया गया । उक्त अवधि में दोनों खण्ड लिख भी लिए गए तथा द्वितीय खण्ड प्रकाशित होकर स्व० प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा विमोचित भी हो गया। अस्तु, इससे प्रथम खण्ड के द्वितीय संस्करण की मांग सर्व साधारण में और बढ़ गई। संयोग की बात है कि ३० दिसम्बर १९८६ को अभी-अभी प्रथम खण्ड के अंग्रेजी संस्करण का विमोचन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी के हाथों हुआ है और तत्काल ही अब प्रथम खण्ड का द्वितीय हिन्दी संस्करण पाठकों के हाथों में आ रहा है। यह संस्करण मुनिश्री महेन्द्र कुमारजी 'प्रथम' व 'द्वितीय' द्वारा संपादक की हैसियत से संशोधित व संवर्धित भी है। प्रथम संस्करण की अपेक्षा इसमें पाठकों को परिमाजित सामग्री व नवीन सामग्री भी कुछ पढ़ने व जानने को मिलेगी। अभिनिष्क्रमण के पश्चात् भी मेरा साहित्य कार्य अबाध गति से चल रहा है, उसका मुख्य श्रेय 'श्रमणरत्न' अग्रगण्य मुनिश्री मानमलजी को है। वे समष्टि का समस्त दायित्व भली-भांति निभा रहे हैं; अतः मैं अपने साहित्य कार्य के लिए बहुत कुछ मुक्त रह जाता हूँ। । प्रस्तुत संस्करण के प्रकाशन का दायित्व कॉन्सेप्ट पब्लिशिंग कम्पनी के संचालक श्री नौरंग राय जी ने उठाया है। उनकी कार्य-निष्ठा व वचन-बद्धता विलक्षण है। वे जिस कार्य को उठा लेते हैं, उसे हो गया ही समझा जा सकता है। ये वे ही नौरंग रायजी हैं, जिन्होंने केवल तीन सप्ताह में अभिधान राजेन्द्र शब्दकोष के सात विशाल खण्ड पुनर्मुद्रित करा के एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया था। मेरे प्रस्तुत ग्रंथ के लिए भी उन्होंने बीड़ा उठाया, यह मेरे लिए प्रसन्नता एवं गर्व की बात है। उनके लिए सहस्रशः आशीर्वाद मेरे हृदय में स्वतः प्रस्फुटित हो रहे हैं। ६ मार्च, १९८७ दिल्ली मुनि नगराज ____Jain Education International 2010_05 Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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