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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : १
आर्द्रककुमार-इस प्रकार प्राण-भूत की हिंसा करना और उसमें पाप का अभाव कहना; संयमी पुरुष के लिए उचित नहीं है। इस प्रकार का जो उपदेश देते हैं और जो सुनते हैं, वे दोनों ही प्रकार के लोग अज्ञान और अकल्याण को प्राप्त करने वाले हैं। जिसे प्रमादरहित होकर संयम और अहिंसा का पालन करना है और जो स्थावर व जगम प्राणियों के स्वरूप को समझता है, क्या वह कभी ऐसी बात कह सकता है, जो तुम कहते हो । बालक को तुम्बा समझ कर और तुम्बे को बालक समझ कर पका ले, क्या यह कोई होने वाली बात है ? जो ऐसा कहते हैं, वे असत्य-भाषी और अनार्य हैं।
मन में तो बालक समझना और ऊपर से उसे तुम्बा कहना, क्या यह संयमी पुरुष के लक्षण हैं ? स्थूल और पुष्ट भेड़ को मार कर, उसे अच्छी तरह से काट कर उसके मांस में नमक डाल कर, तेल में तल कर, पिप्पली आदि द्रव्यों से बघार कर तुम्हारे लिये तैयार करते हैं ; उस मांस को तुम खाते हो और यह कहते हो कि हमें पाप नहीं लगता ; यह सब तुम्हारे दुष्ट स्वभाव तथा रस-लंपटता का सूचक है । इस प्रकार का मांस कोई अनजान में भी खाता है, वह पाप करता है; फिर यह कह कर कि हम जान कर नहीं खाते; इसलिए हमें दोष नहीं है, सरासर झूठ नहीं तो क्या है ?
प्राणी-मात्र के प्रति दया-भाव रखने वाले, सावद्य दोषों का वर्जन करने वाले नातपुत्त भिक्षु दोष की आशंका से उद्दिष्ट भोजन का ही विवर्जन करते हैं। जो स्थावर और जंगम प्राणियों को थोड़ी भी पीड़ा हो; ऐसा प्रवर्तन नहीं करते हैं, वे ऐसा प्रमाद नहीं कर सकते। संयमी पुरुष का धर्म-पालन इतना सूक्ष्म है ।
जो व्यक्ति प्रतिदिन दो-दो सहस्र स्तानक भिक्षुओं को भोजन खिलाता है, वह तो पूर्ण असंयमी है । लोही से सने हाथ वाला व्यक्ति इस लोक में भी तिरस्कार का पात्र है, उसक परलोक में उत्तम गति की बात ही कहाँ ?
जिस वचन से पाप को उत्तेजन मिलता है, वह वचन कभी नहीं बोलना चाहिए। तथाप्रकार की तत्त्व-शून्य वाणी गुणों से रहित है। दीक्षित कहलाने वाले भिक्षुओं को तो वह कभी बोलनी ही नहीं चाहिए।
हे भिक्षुओ! तुमने ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त किया है और जीवों के शुभाशुभकर्म-फल को समझा है ! सम्भवत: इसी विज्ञान से तुम्हारा यश पूर्व व पश्चिम समुद्र तक फैला है और तुमने ही समस्त लोक को हस्तगत पदार्थ की तरह देखा है ! वेदवादी ब्राह्मण
- वेदवादी-जो प्रतिदिन दो सहस्र स्नातक ब्राह्मणों को भोजन खिलाता है, वह पुण्य की राशि एकत्रित कर देव-गति में उत्पन्न होता है, ऐसा हमारा वेद-वाक्य है।
आर्द्रक मुनि-मार्जार की तरह घर-घर भटकने वाले दो हजार स्नातकों को जो खिलाता है, वह मांसाहारी पक्षियों से परिपूर्ण तथा तीव्र वेदनामय नरक में जाता है । दयाप्रधान धर्म की निन्दा और हिंसा-प्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला मनुष्य एक भी शील रहित ब्राह्मण को खिलाता है, तो वह अन्धकार युक्त नरक में भटकता है। उसे देव-गति कहाँ है ?
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