Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Shwetambar
Author(s): Rai Dhanpatsinh Bahadur
Publisher: Rai Dhanpatsinh Bahadur
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• टोका
१०४५
सूव
भाषा
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उत्कृष्टं असंख्य ं कालं यावत्तिष्टति जघन्य' तु अन्तर्मुहर्त्त तिष्टति इति भावः इत्य' द्विविधाया अपि स्थिते: सादि सपर्यवसितत्वमुक्तः अथ कालस्यान्त र्गतं एव कालांतरमाह ( अणन्तकाल मुक्कोसं अन्तोमुहुत्त जहन्रियं विजढम्मिसरकार पुढवोजीवाण अन्तरं ८२) पृथ्वीजीवानां स्वकौयेकायेविज मि इति व्यक्त सति उत्क्कष्ट' अनन्त काल अन्तरं भवति जघन्धक' अन्तरं अन्तर्मुहर्त्त भवति कोर्थः यदाहि पृथ्वीकायस्टोजीवः पृथ्वीकायात् चत्वा अपरस्मिन् काये उत्पद्येत तत उत्वा पुनः पृथ्वीकाये एव उत्पद्येत तदाकियदन्तरं भवति उत्कृष्टं अनन्तकालं जघन्य' अन्तर्मुहर्त्त ं यदा पृथ्वीजोवस्य पृथ्वौकायात् च्युतिर्भूत्वावनस्पति काये उत्पत्तिः स्यात्तदा अनन्तकालस्यान्तर' जायते वनस्पति कायस्थ जीवस्य अनन्तकालस्यतित्वात् जघन्य' अन्तर अन्तर्मुहर्त्तं भवति ८२ एतान्ये व भावत आह [एएसिंवन्न्रओचेव गन्धओरसफासओ सण्ठाणादेसश्रवावि विहाणाइसहरूमसो ८३] एतेषां पृथ्वीजीवानां वर्ण तोगन्धतोरसतः स्पर्शतः संस्थानतथापि सहश्रशोविधानानि भेदाभवन्ति सहश्रमइत्युपलक्षणं वर्णादितारतम्यस्य बहुभेदत्वेन श्रसंख्यामेदत्वात्
चओ ८२ ॥ अणंतकाल मुक्कीसं अंतोमुहुत्त जहन्नयं । बिजढंमिं सए काए पुढवि जौबाण मंतरं ८३ ॥ एएसिं बन्न चं`व ग ंधओ रस फासओ । संठाणा देसओबावि बिहागाई सहम्मसा ८४ ॥ दुबिहा आउ जीवाओ सुहमा बायरा
गंध थको फरसथको रसथकी संस्थानमा आदेशथको पणिए संस्थानना भेद भेदतिरथको विधानभेद सहस्रगमे हुई सख्याता असंख्यात अनंत पणे यद्यपि वर्ण ५ गंध २ रस ५ फरस ८ के तथापि तरतम योगे घणाभेदहुइ ८३ विहं प्रकारे अप्कायनाजीव सूक्ष्म अने वादर अप्काय तिम बादर पर्याप्ता अपर्याप्ता इमए बिहु प्रकारे वली ८४ बाहर अपकाय जे पर्याप्ता यांचे प्रकारे कया तौर्थ करे मे घनो पाणी तथा ओसनो समुद्रनो डाभ
आ० सं० उ० ४.१ मा भाग
बाहादुर का अ
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