Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Shwetambar
Author(s): Rai Dhanpatsinh Bahadur
Publisher: Rai Dhanpatsinh Bahadur
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सटीका
* स्थितिळख्याता सा एव तेषां नारकाणां कायस्थि तिर्जधनोत्तष्टतश्च व्याख्याता यतोहि नारको जीवीमत्वा पुनर्नरकभूमौ नोत्पद्यते अनात्र गर्भज
पर्याप्त संख्येय वर्षायुकेष उत्पद्यते पश्चाबरके उत्पद्यते नीत्पद्यते च १७० अथ कालान्तरमाह (अणन्त कालमुकीसं अन्तीमुडुत्त जहवियं विजढं मिस १०७१
* एकाएनेरइयाणं तु अन्तरं १७१) नारकाणं तु खेकायेत्यक्ते सति उत्कृष्ट कालस्यान्तरं अनन्तकालं भवति जघनातोऽन्तमुहर्त कालाकरं भवति
यदा अनातरनरकात् कश्चिवारकञ्च प्रत्वागर्भजपर्याप्त मत्स्यादिषु उत्पद्यते तत्र च अत्यन्तदुष्टाध्यवसावत्वात् अन्तर्मुहर्त आयुः प्रपात्यमृत्वाऽनातमनरके उत्पद्यते १७१ [एएसिवनीचेव गन्धो रसफासी सण्ठाणा देसओवावि विहाणाडू सहस्मसो १७१] एतेषां नारकाणां वसं तो गन्धतीरसतः स्मर्थतः संस्थानादेशतथापि सहस्रसोविधानानि बहवो भेदा भवन्ति १७१ अथ पञ्चद्रियतिरां भेदानाह [पञ्चन्दियातिरिक्वाय दुविहाते वियाहिया समुच्छिमातिरिक्वाय गमवक' तियातहा १७२] पजे द्रियास्ति र्य' ची विविधा व्याख्यातास्ते के संमूर्णिमास्तिर्य च स्तथा गर्भव्युक्रान्ति कास्तिर्यञ्चच
आउ ठिई नेरईयाणं बियाहिया। सातेसिं काय ठिई जहन्न कोसिया भवे १६८॥ अणंत काल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विज]मि सए काए नेरयाणंतु अंतरं १६६ ॥ एएसि वन्नो चेव गधो रस फासी । संठाणा देसी
वावि विहाणाडू सहस्मसी १७०॥ पंचिदिय तिरिक्खाओ दुविहा ते वियाहिया। समुच्छिम तिरिक्खाओ गम्भ वक्त रोप मनो १५६ अनंतोकाल उत्कष्टो अंतरमुहुर्त जघन्य छांय थके आपणी नारकीनी काया नारकीनो पांतरी हुयी १६७ ए नारको वर्ण धको वली गंधधको रसथकी फरसबको संस्थानना आदेशयकी विधान भेद सहन गर्म
पंचेंद्रिय तिर्यच जीव निर्थ विहु मैदे कहा तोध
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.म.उ. ४१मा भाग

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