Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Bhadrankarsuri
Publisher: Bhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
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શ્રી જીવાજીવવિભક્તિ-અધ્યયન-૩૬
४२८ कुक्कुडे सिंगिरीडी अ, नंदावते अविच्छिए । डोले भिगिरीडी अ, विरिकी अच्छिवेधए ॥१४७॥ ओच्छले माहए अच्छिरोडए,विचित्ते चित्तपत्तए। ओहिंजलिआ जलकारि अ, नीआ तंबगावि अ ॥१४८॥ इइ चउरिदिआ, अणेगहा एवमायो । लोगस्स एगदेसंमि, ते सव्वे परिकित्तिआ ॥१४९॥ संतई पप्पऽणाईआ, अपज्जवसिआवि अ । ठिई पडुच्च साईआ, सपज्जवसिआवि अ ॥१५०॥ छच्चेव य मासाऊ, उक्कोसेग विश्राहिआ । चउरिदिअाउठिई, अंशोमुहुत्तं जहण्णिा ॥१५१॥ संखेज्जकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं । चरिंदियकायठिई, तं कायं तु अमुचओ ॥१५२॥ अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुरो जहन्नगं । चउरिदिआण जीवाणं, अंतरेअं.विआहिकं ॥१५३॥ एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासो । संठाणदेसओ वावि, विहाणाईसहस्ससो ॥१५४॥
॥ दशभिः कुल कम् ।। चतुरिन्द्रियास्तु ये जीवाः, द्विविधास्ते प्रकोर्तिताः । पर्याप्ताऽपर्याप्तास्तेषां, भेदान् शृणुत मे ॥१४५॥ अन्धिकाः पौत्तिकाश्चैव, मक्षिका मशकास्तथा भ्रमरः कीटपतङ्गश्च, टिंकुणः कुंकुणस्तथा ॥१४६॥
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