Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Darbarilal Nyayatirth
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
View full book text
________________
500 राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा.
एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया ॥ जयं परिविजा, परिठप्प पडिक्कमे ॥ ६॥ सिआ य निरकू इचिजा, सिङमागम्म नुत्तुओं ॥ सपिंडपायमागम्म, उंडुअं से पडिले हिया ॥७॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी ॥ इरियावहियमायाय, आगउँ अ पडिक्कमे ॥ ७ ॥ श्रानोश्त्ता ण नीसेसं, अश्आरं जहक्कम ॥ गमणागमणे चेव, नत्ते पाणे च संजए॥ ए॥ जअप्पन्नो अणुविग्गो, अबखित्तेण चेअसा ॥ आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहिरं नवे ॥ ए० ॥ न सम्ममालोश्यं कुडा, पुविं पञ्चाव जंकडं ॥ पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसो चिंतए इमं ॥१॥ एहा जिणेहिं असावजा, वित्ती साहूण देसिया ॥ मुरकसाहणहेजस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥ ए॥ णमुक्कारेण पारित्ता, करित्ता जिणसंथवं ॥ सज्कायं पवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥ ए३ ॥ वीसमंतो मं चिंते, हियम लानमनि ॥ ज मे अणुग्गरं कुजा, साहू हुजामि तारि ॥ ए॥ साहवो तो चियत्तेणं, निमंतिज जहक्कम ॥ जश् तत्थ के इलिजा, तेहिं सहिं तु नुंजए ॥ एए॥ अह कोश् न इबिजा, तनुंजिज एक्कळ ॥ आलोए जायणे साहू, जयं अप्परिसामियं ॥ ए६॥ तित्तगं व कमुरं व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा ॥ एअलक्ष्मन्नत्थ पनत्तं, महुघयं वसुंजिक संजए॥ अरसं विरसं वा वि, सूश्यं वा असूश्यं ॥ नवं वा जश् वा सुक्कं, मंथुकुम्मासनोअणं ॥ ए॥ नप्पएणं ना हीलिजा, अप्पं वा बहु फासुकं ॥ मुहालचं मुहाजीवी, लुजिजा दोसवजिरं ॥ एए॥ मुबहार्ड मुहादाइ, मुहाजीवी वि उसहा ॥ मुहादा मुहाजीवी, दो वि गर्छति सुग्गई॥ति बेमि ॥१०॥
॥इति पिंडेसणाए पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ पडिग्गहं संलिहिता णं, लेवमायाइ संजए ॥ गंधं वा, सुगंधवा सवं लुजे न उड्डए ॥१॥ सेजा निसीहियाए, समावन्नो अ गोअरे ॥ अयावयच नुच्चा एणं, जश् तेणं न संथरे ॥२॥ त कारणमुप्पएणे, लत्तपाणं गवेसए ॥ विहिणा पुवउत्तेण, श्मेणं उत्तरेण य॥३॥ कालेण निरकमे निरकू, कालेण य पडिक्कमे ॥ अकालं च विवजित्ता, काले कालं समायरे ॥४॥ अकाले चरिसी निरकू , कालं न पमिलेहिसि ॥ अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ॥५॥ सइ काले चरे निरकू, कुजा पुरिसकारिअं ॥ अलानु त्ति न सोश्जा, तवुत्ति अहिआसए॥६॥ तहेवुच्चावया पाणा, जत्तकाए समागया ॥ तंजऊरं न गबिजा, जयमेव परक्कमे ॥ ७॥ गोअरग्गपवित्रो अ, न निसीइज कछ॥ कहं च न पबंधिजा, चिन्त्तिा ण व संजए ॥ ७ ॥ अग्गलं फलिहं दारं, कवाऊ वा वि संजए ॥ अवलंबित्रा न चिब्जिा ,गोअरग्गग मुणी ॥ ए॥ समपं माहवा वि.किविणं वा वणीमगं ॥ जवसंकमंतं लत्तघा. पाणछा एव संजए॥१०॥ तमश्क्कमित्तु न पविसे, न वि चिठे चरकुगोअरे ॥ एगंतमवक्कमित्ता, तत्थ चिहिक संजए॥११॥ वणी मगस्स वा तस्स, दायगस्सुल्नयस्स वा ॥ अप्पत्तिअं सिआ हुजा, लत्तं पवयणस्स वा ॥१॥ पमिसेहिए व दिन्ने वा, त तम्मि नियत्तिए ॥ नवसंकमिज लत्तका, पाणघाए व संजए ॥ १३ ॥ नप्पलं पलमं वा वि, कुमुरं वा मगदंतियं ॥ अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संलुचित्रा दए ॥ १४ ॥ तं नवे लत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दितिरं पमिश्राश्के, न मे कप्प३ तारिसं ॥ १५ ॥ नप्पलं पनमं वा वि, कुमुझं वा मगदंतियं ॥ अन्नं वा पुप्फसञ्चित्तं, तं च संमद्दिा दए ॥ १६॥ तं नवे लत्तपाणं तु, सजयाण अकप्पियं ॥ दितिरं पडिआइरके, न मे कप्प३ तारिसं ॥१७॥ सालुओं वा विरालि, कुमुझं उप्पलनालिशं । मुणालिरं सासवनालियं, नलुखं अनिवुडं ॥ १७ ॥ तरुणगं वा पवादं, रुरकस्स तणगस्स वा ॥ अन्नस्स वा वि हरिअस्स, श्रामगं परिवाए ॥ १५॥ तरुणिचं वा विवामि, आमिरं नजिअंसई ॥ दितिशं पडिआइरके, न मे कप्प३ तारिसं ॥२०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728